शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

समंदर के किनारे



बड़े हीं असमंजस के दौर से
उस दिन गुजर रहा था मैं
समंदर के किनारे बैठा
अपने अंदर की हलचल को
शांत करने की
नाकाम कोशिशों में लगा था
मेरे अंदर की उलझन
सुलझ नहीं पा रही थी






पर न जाने क्यूँ
समंदर की लहरों में
एक अजीब किस्म की ख़ामोशी थी
जो मुझे महसूस हो रही थी
लहरें बिल्कूल शांत थीं
हवा की गति में भी
उस दिन ठहराव था
धीरे-धीरे रात का सूनापन
गहराता जा रहा था
ऐसे में दूर किसी के
कदमों की मध्यम आहट के साथ
पायलों की हल्की छम-छम
बिना रूकावट के
निरंतर मेरे कानों में
धंसती चली आ रही थीं





समंदर की लहरों का शांत होना तो
तूफान के आने का द्योतक है
लेकिन पायलों की छम-छम
मेरे लिए एक अन सुलझी
पहेली सी बनती जा रही थी
हवा में तैरती पायलों की छम-छम
और कदमों की मध्यम आहट
मेरे तरफ बढ़ी आ रही थीं
या मुझसे दूर जा रही थीं
मैं इसे समझ नहीं पा रहा था





तभी अचानक समंदर की लहरें
उछाल भरने लगी
तूफानों की गति में यकायक
तीव्रता आ गयी
समंदर का पानी मेरी तरफ
बढ़ता चला आ रहा था
अचानक समंदर के पानी की छुअन ने
कल्पना के समंदर में
गोते लगा रहे मेरे मन को
झकझोर कर रख दिया
उन आवाज़ों के पास या दूर
होने का ख्याल मेरे मन से
मिटता चला गया





मैं समझ गया
कि मैं एक हसीन लेकिन
कोरी कल्पना की दुनियां से
निकलकर अभी-अभी बाहर आया हूँ
लेकिन मेरा वो ख्याल
इतना हसीन था
कि आजकल मैं हरदिन
उस ख्याल में खोने का इरादा लिये
समंदर के किनारे
जा बैठता हूँ
लेकिन, तब से आज तक
समंदर के पानी को
मैंने कभी इतना शांत होते नहीं देखा है ।

..................................(गंगेश कुमार ठाकुर)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें