गुरुवार, 12 जनवरी 2012

राज्यों में चुनाव या पार्टियों का पंचनामा


देश के पांच राज्यों में हाल ही में विधानसभा का चुनाव होना तय हुआ है । वो भी एक ऐसे समय में जब देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन की आग बुझ भी नहीं पाई है । केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दोनों हीं जनता के कटघरे में खड़े हैं । चुनाव आयोग ने ऐसे समय में देश के उन पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा की है जिसमें से एक राज्य ऐसा है जो भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करने की क्षमता रखता है । इन पांच राज्यों के चुनावों के नतीजे आने वाले समय में देश की राजनीति में कई नये गणित का शुभारंभ करने वाले हैं ऐसा प्रतीत होने लगा है । चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ हीं राजनीतिक दल एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का हथियार थामे हमला करने पर उतारू हैं । केन्द्र में सत्ता की कुर्सी पर आसीन कांग्रेस पार्टी अपने युवराज के दम पर बाईस सालों से उत्तरप्रदेश में अपनी खोयी ताकत पाने की जुगाड़ में लग गयी है । इन राज्यों में होने वाले चुनावों के नतीजे भी यह तय करने वाले होंगे की राज्यसभा में बहुमत किसकी होगी और जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव की स्थिति भी इन चुनावों के बाद लगभग स्पष्ट हो जायेगी । उत्तर प्रदेश के चुनाव का नतीजा काफी हद तक साल के अंत में होने वाले हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनावों का भविष्य भी तय कर चुका होगा ऐसे में सभी छोटी, बड़ी, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियां चुनाव की तैयारियों में जी जान से जुट गई हैं । उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास खोने के नाम पर कुछ नहीं है लेकिन अगर वह अपनी स्थिति यहां मजबूत कर लेती है तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की बागडोर युवराज को सौंपा जा सकता है, क्योंकि युवराज का भविष्य भी काफी हद तक यूपी के चुनाव पर निर्भर करता है । मायावती के शासनकाल में जनता ने क्या पाया क्या खोया इसका फैसला भी जनता के मत की गणना से हीं पता चल पायेगा बसपा चुनाव के मद्देनजर पार्टी से कई बाहुबली और भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है लेकिन जनता मायावती के इस फैसले का और उनके शासन का कितना सम्मान करती है यह तो आने वाला वक्त हीं बतायेगा । अमर सिंह और सपा के बीच की तनातनी और फिर दोनों के अलग हो जाने से सपा को कितना नुकसान हुआ है यह सपा को भी नजर आने लगा है लेकिन फिर भी सपा चुनाव में बसपा को हराने का ध्येय लेकर मैदान में उतरी है । हालांकि सपा को अभी भी अमर सिंह का खतरा बना हुआ है । इधर भाजपा के अंदर का अंतर्कलह पार्टी की चुनावी जमीन को यूपी में कमजोर करती नजर आ रही है उपर से सोने पर सुहागा तो तब हो गया जब बसपा से निकाले गये मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा ने अपने छांव तले आराम करने का और चुनाव लड़ने का मौका देने की घोषणा कर दी । पार्टी का अंतर्कलह एक बार फिर इस चुनावी मौसम में बिन बादल बरसात की तरह बरस पड़ा और इसका फायदा उठाने के लिए विपक्षी दल सामने से भाजपा पर उंगली उठाए खड़े हो गये हैं । इसका नुकसान भाजपा को कितना होता है और कितना फायदा विपक्षी पार्टियों को होता है यह तो चुनाव के बाद के चुनावी आसमान पर मतगणना के रूप में फैलने वाला इंद्रधनुष हीं बतायेगा । पश्चिम बंगाल में अपनी लंबी सत्ता सुख का आनंद खोने के बाद माकपा को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की स्थिति में हीं केवल देखा जा सकता है ऐसे में पार्टी इन चुनावों में क्या कर पाती है यह भी वक्त का घूमता पहिया ही बताएगा, लेकिन पिछले चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो गया है कि पार्टी को अपनी विचारधारा पर पुनर्विचार की जरूरत है । ऐसे में लगने लगा है कि क्षेत्रीय दल हीं पूरी चुनावी प्रक्रिया और सरकार बनाने तक अपनी निर्णायक भूमिका अदा करेंगे । खैर चुनावी परिणामों के आने के बाद हीं यह स्पष्ट हो पायेगा की ऊँट आखिर किस करवट बैठेगा । लेकिन पार्टियों की अभी तक की स्थिति यह जरूर सोचने पर मजबूर कर रही है कि पांच राज्यों में होने वाला यह चुनाव पार्टियों का किस तरह का पंचनामा करने वाली है ।

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