मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

साहित्य शिरोमणी चले गए अब साहित्य संभालो भैया जी


हंस के संपादक और साहित्य में खासी धौंस रखने वाले राजेंद्र यादव ने आखिरकार दुनिया को अलविदा कह दिया। तकरीबन 84 साल के राजेन्द्र यादव को अचानक सांस में तकलीफ हुई, जिसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की कोशिश की गई लेकिन कोशिश नाकाम, उनकी सांसों ने साहित्य का और उनका दोनों का साथ छोड़ दिया। अस्पताल ले जाने के क्रम में ही उन्होंने दम तोड़ दिया। ख़ैर यह तो सच्चाई है कि एक दिन दुनिया से सबको जाना है लेकिन कुछ लोगों के जाने का ग़म हर किसी को होता है और राजेंद्र जी उनमें से एक थे जिनके जाने का ग़म शायद हम जैसे कई साहित्य प्रेमियों को अंदर तक झकझोर गया। हंस ने राजेंद्र जी के साथ-साथ जितने सावन गुजारे हम जैसे साहित्य प्रेमियों को उनमें से कई साल उस सावन का भरपूर आनंद उठाने का मौका भी दिया। साहित्य से अलग बिल्कुल बेबाक छवि, कोमल मन हमेशा प्यार और केवल प्यार बांटने वाले ऐसे लोग कम ही धरती पर पैदा होते हैं। प्रभात खबर के दीपावली विशेष अंक के लिए मुझे एक बार उनका साक्षात्कार का मौका मिला हालांकि बात पूरी नहीं हो पाई। कारण उनके पास व्यस्तता ही थी और वजह कुछ भी नहीं थी। हालांकि मैं उनके साक्षात्कार को अपने शब्दों के रंग से भरकर प्रभात खबर के पन्नों के हवाले तो नहीं कर सका लेकिन दूरभाष पर जिस तरह के आत्मीय बोध के साथ उन्होंने मुझे अपना आशीर्वाद दिया मैं धन्य होगा गया था। उन्होंने जिंदगी में मुझे खूब आगे बढ़ने और ढेरों तरक्की करने का प्यार भरा संदेश दिया और अपनी व्यस्तता का जिक्र करते हुए संबंध विच्छेद कर लिया। हालांकि उनके जीवन के बारे में पढ़ने और जानने का अवसर मुझे नहीं मिल पाया था लेकिन आज अगर उनके लिए मेरी तरफ से कोई श्रद्धांजलि होती तो शायद उनके बारे में पढ़कर और जानकर और आपसे साझा करके ही दी जा सकती थी सो मैंने अलग-अलग जगहों से उनको और उनके जीवन को पढ़ा और बतौर श्रद्धांजलि अपने हाथों से उन्हें अर्पित कर रहा हूं।
राजेंद्र जी का जन्म 28 अगस्त 1929 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। साहित्य में शुरू से ही रूचि रखने वाले राजेंद्र जी ने 1951 में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. हिंदी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उन्होंने साहित्य को ही अपनी कर्मभूमि बनाकर इस क्षेत्र में उल्लेखनिए काम किया। सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनका हंस पत्रिका को दोबारा शुरू करने में रहा। गौरतलब है कि इस पत्रिका को मशहूर साहित्यकार प्रेमचंद ने 1930 में प्रकाशित करना आरम्भ किया था। राजेंद्र जी ने हंस का पुर्नप्रकाशन 1986 में आरम्भ करके प्रेमचंद के विचारों को आगे बढ़ाया। 25 साल पहले संपादक के पद से इसकी शुरूआत करने वाले राजेंद्र जी अंतिम समय तक इसी पद पर बने रहे। कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने योगदान के द्वारा इस पत्रिका से साहित्यिक मूल्यों को एक नई दिशा दी। साहित्य जगत से जुड़े लोग कहते हैं कि राजेंद्र जी की वजह से ही हंस का प्रकाशन हो पाया नहीं तो शायद इसका प्रकाशन नहीं हो पाता। आज अगर हिंदी साहित्य में हंस का नाम इतने सम्मान के साथ लिया जाता है तो उसका श्रेय निश्चित तौर पर राजेंद्र जी को ही जाता है। राजेंद्र जी पत्रिका में, मेरी-तेरी उसकी बात सम्पादकीय से हमेशा नये मुद्दों पर बात करते थे। निश्चित तौर पर यह पहली ऐसी पत्रिका है जिसके सम्पादकीय पर तमाम पत्र-पत्रिकाएं बहस करती हुई दिखाई देती थीं। इसके साथ ही समकालीन सृजन संदर्भ के अन्तर्गत भारत भारद्वाज द्वारा तमाम चर्चित पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं पर चर्चा, मुख्तसर के माध्यम से साहित्य-समाचार तो बात बोलेगी के अन्तर्गत कार्यकारी संपादक संजीव के शब्द पत्रिका को धार देते हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो इस पत्रिका के माध्यम से लोग नए-नए विचारों से रूबरू होते थे। पत्रिका में इसके साथ ही कहानी, कविता, गज़ल, जैसी विधाएं भी हैं जो साहित्य को पढ़ने वालों को अलग अनुभव प्रदान करती हैं। यानि साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि राजेंद्र जी की वजह से ही इस पत्रिका का इतना विकास हो सका है।
तमाम पहलूओं पर चर्चा करने के बाद इस बात का तो एहसास निश्चित तौर पर होता है कि राजेंद्र यादव हिन्दी साहित्य के बेहद मजबूत स्तंभ थे। राजेंद्र यादव ने न सिर्फ हंस पत्रिका को नई ऊंचाई दी बल्कि साहित्य के क्षेत्र में भी नए आयाम गढ़े। उपन्यास, कहानी, कविता और आलोचना पर राजेंद्र जी की बेहद अच्छी पकड़ थी। उनके उपन्यासों के नाम इस तरह से हैं- सारा आकाश, उखड़े हुए लोग, शह और मात, एक इंच मुस्कान, कुलटा, अनदेखे अनजाने पुल, मंत्र विद्ध, स्वरूप और संवेदना और एक था शैलेन्द्र। इसी तरह से उनके कहानी संग्रह थे- देवताओं की मूर्तियां, खेल खिलौने, जहां लक्ष्मी कैद है, छोटे-छोटे ताजमहल, किनारे से किनारे तक, टूटना, ढोल और अपने पार, वहां पहुंचने की दौड़। उनके द्धारा की गईं आलोचना- कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति, कांटे की बात – बारह खंड, प्रेमचंद की विरासत, अठारह उपन्यास, औरों के बहाने, आदमी की निगाह में औरत, वे देवता नहीं हैं, मुड़-मुड़के देखता हूं, अब वे वहां नहीं रहते और काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता। उनका एकमात्र कविता संग्रह है-आवाज़ तेरी है। बहराहल राजेंद्र जी के जाने से जो क्षति साहित्य की हुई है उसकी पूर्ती करना फिलहाल मुमकिन नज़र नहीं आ रहा है। राजेंद्र यादव जी को शाईनलुक मीडिया की तरफ से अंतिम सलाम।

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