बुधवार, 31 जुलाई 2013

तेलंगाना नहीं दिया जनता के पैरों के लिए चुनावी तेल दिया है

आखिरकार यूपीए सरकार की नींद खुली और पृथक तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के नुमाइंदे एकजुट होकर रंगे सियार की तरह हुआ-हुआ करने लगे। सैकड़ों जान की कीमत चुकाने के बाद और 64 साल के संघर्ष के बाद आखिर सरकार तेलंगाना मुद्दे पर अब ही क्यों इतनी दयालु हुई यह प्रश्न विचार के लायक है। देश में 2014 में आम चुनाव है। एनडीए और यूपीए दोनों को अपने-अपने काम को लेकर चनता के दरबार में जाना है ऐसे में यूपीए सरकार के लिए तेलंगाना मुद्दा तुर्क का पत्ता ही तो था जिसे सरकार ने सही समय पर खोला और कहा कि सरकार को तेलंगाना बनाने में लगभग छह महीने का समय लगेगा। यानि यूपीए सरकार की उपलब्धियों में एक ताजातरीन उदाहरण चुनाव से ठीक पहले और भी जुड़ जाएगा और जनता जब तक इसे भूलेगी आम चुनाव में इसका फायदा यूपीए सरकार को मिल चुका होगा। इसी सोच के साथ संसद के पटल पर 1969 से धूल खा रही तेलंगाना की फाइल से सरकार ने धूल साफ करवा दी है ताकि जनता की नजर इस फाइल पर पड़ते ही उनकी आंखें चुंधिया जाए और तब तक सरकार इसका फायदा उठा ले जाए। तेलंगाना आंदोलन के इतिहास में 1969 का साल सबसे अहम है। इसी साल हैदराबाद और तेलंगाना के सभी इलाकों में अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर पहली बार हिंसक आंदोलन हुआ। आंध्रप्रदेश की राजनीति में तूफान आ गया और इस तूफान में आज तक तेलंगाना के मुद्दे पर प्रदेश की राजनीति को बांटे रखा। आंध्र प्रदेश के दोनों इलाकों को तो मिला दिया गया लेकिन दोनों में रहनेवाले के दिल कभी नहीं मिले। आंध्र प्रदेश के अंदर 23 जिले हैं जिसमें से 10 जिले जो वन संपदा और खनिज संपदा के प्रचुर भंडार के रूप में राज्य में है इसी को पृथक कर तेलंगाना राज्य की मांग शुरू की गई। खैर देश में हाल ही में अलग तीन राज्यों को देखा जाए तो लगेगा कि इनका अलग होना जरूरी भी था लेकिन राज्यों के अलग होने के बाद जिस तरह से वहां भ्रष्टाचार, लूट, बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा जैसी समस्याओं का साम्राज्य पनपता गया उससे कहीं न कहीं लगने लगा कि देश के अन्य राज्यों से जिस उद्देश्य के साथ इन राज्यों को पृथक किया गया उसका किसी भी तरह से फायदा इन राज्यों को नहीं मिला।
अभी जिस क्षेत्र को तेलंगाना कहा जाता है वह कभी हैदराबाद प्रांत का हिस्सा था, जिसका विलय 17 सितंबर 1948 को भारत में हो गया।  इसी हैदराबाद प्रांत को आंध्रप्रदेश राज्य में मिलाने का प्रस्ताव 1953 में पेश किया गया और हैदराबाद प्रांत के तत्कालीन मुख्यमंत्री बरगुला रामकृष्ण राव ने इस सिलसिले में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के फैसले का समर्थन किया जबकि तेलंगाना क्षेत्र में इस फैसले का विरोध किया जा रहा था। विलय प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए आंध्रप्रदेश विधानसभा ने 25 नवंबर 1955 को तेलंगाना के हितों की सुरक्षा करने का वादा किया और तेलंगाना क्षेत्र का विलय भी आंध्रप्रदेश में हो गया। तेलंगाना के हितों की रक्षा करने के लिए 20 फरवरी 1956 को तेलंगाना नेताओं तथा आंध्र नेताओं के बीच एक समझौता हुआ। बेजवाडा गोपाल रेड्डी और बरगुला रामकृष्ण राव ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया।
फिर, राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत हैदराबाद प्रांत के तेलगू भाषी इलाकों को आंध्रप्रदेश के साथ मिलाकर 1 नवंबर 1956 को यह राज्य बन गया। तेलंगाना क्षेत्र के लोगों को इस विलय से डर था कि वे शिक्षा और नौकरियों के मामले में पिछड़ जाएंगे। उनका डर कहीं न कहीं सही साबित हुआ और दोनों क्षेत्रों में यह अंतर अब भी बना हुआ है। सांस्कृतिक रूप से देखा जाए तो दोनों क्षेत्रों में खासा अंतर है। आंध्रप्रदेश में जहां दक्षिण भारतीय संस्कृति का रंग भरा हुआ है वहीं तेलंगाना पर उत्तर भारतीय संस्कृति का असर है।
साठ के दशक से अलग तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्रों ने आंदोलन की शुरुआत कर दी बाद में इसमें अन्य लोगों ने भी अपनी हिस्सेदारी निभाई। इस आंदोलन के दौरान पुलिस गोलीबारी और लाठी चार्ज में तीन सौ से अधिक छात्र मारे गए। उसी दौरान तेलंगाना प्रजा राज्यम पार्टी के प्रमुख नेता एम चेन्ना रेड्डी ने जय तेलंगाना का नारा दिया। बाद में एम चेन्ना रेड्डी ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर लिया जिससे आंदोलन कमजोर पड़ने लगा। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रेड्डी को आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया और इस आंदोलन ने पूरी तरह से दम तोड़ दिया। लेकिन, साल 2001 में तेलुगू देशम पार्टी के के चंद्रशेखर राव ने एक बार फिर तेलंगाना आंदोलन में नई जान फूंक दी और अपनी नई पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के नाम से गठित कर लिया। उन्होंने पृथक तेलंगाना राज्य के गठन के लिए छात्रों के साथ मिलकर आंदोलन की पुन: शुरुआत कर दी। तब से लगातार इस आंदोलन में थम-थम कर ही सही नया मोड़ आता रहा और नतीजा यह हुआ कि दिसंबर 2009 में पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की मांग को लेकर के चंद्रशेखर राव ने आमरण अनशन शुरू कर दिया। अनशन के 11वें दिन उनकी हालत बिगड़ने लगी जिससे घबराकर नौ दिसंबर 2009 की रात तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिंदबरम ने पृथक तेलंगाना राज्य के गठन की घोषणा कर दी। बाद में नाटकीय तरीके से अपनी कार्यशैली के अनुसार चलते हुए यूपीए सरकार अपनी घोषणा से मुकर गई और तेलंगाना आंदोलन ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया। इसके बाद तो हालात इतने बदतर हो गए कि उस्मानिया और वारंगल विश्वविद्यालय के छात्रों समेत समूचा तेलंगाना हिंसक आंदोलन पर उतर आया। कुछ आंदोलनकारियों ने आत्मदाह तक कर लिया और कई अन्य आंदोलन की बलिवेदी पर चढ़ गए। सितंबर 2011 में तेलंगाना क्षेत्र के सरकारी कर्मचारियों ने 42 दिन की हड़ताल की जिससे राज्य भर के लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। आखिरकार सरकार के आश्वासन के बाद 25 अक्टूबर को हड़ताल समाप्त हो गई लेकिन आंदोलन जारी रहा। तेलंगाना आंदोलनकारियों को वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर पृथक राज्य के गठन की उम्मीद बनी रही। कांग्रेस सरकार ने भी अपनी चाल के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले अलग तेलंगाना राज्य के गठन का लालीपॉप तेलंगाना के लोगों के हाथों में थमा दिया। केन्द्र ने सत्तारूढ़ यूपीए की समन्वय समिति और कांग्रेस कार्यसमिति की तरफ से मंजूरी देकर पृथक तेलंगाना राज्य बनने का रास्ता साफ कर दिया लेकिन, यूपीए सरकार के एकाएक इस फैसले पर लोगों की नजर टेढ़ी होने लगी है। यूपीए के अनुसार दोनों ही राज्यों के लिए हैदराबाद संयुक्त राजधानी होगी और इसे केन्द्र शासित क्षेत्र का दर्जा दिया जाएगा।
क्या छोटे राज्यों के निर्माण से विकास का मॉडल तैयार किया जा सकता है? क्या विकास के लिए छोटे और पृथक राज्यों को बनाने की जरूरत है? क्या इससे पहले बने सारे राज्य जो अन्य राज्यों से पृथक हुए हैं उनमें विकास की रोशनी दिख रही है? क्या बड़े राज्यों से ज्यादा विकास अभी के छोटे राज्यों में दिख रहा है? क्या अमेरिका के मॉडल पर छोटे राज्यों के निर्माण की पद्धति हमारे देश के लिए उपयुक्त है? क्या हमारा राजनीतिक और सामाजिक दायरा अमेरिका के राजनीतिक और सामाजिक दायरे जैसा है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जबाव मात्र से स्पष्ट हो जाएगा की भारत में अपने राजनीतिक फायदे के लिए हर सरकार समय-समय पर छोटे राज्यों के निर्माण का कार्य करती रही है। अगर ऐसा नहीं है तो तेलंगाना से पहले विदर्भ के साथ कई और राज्य हैं जिनको पृथक करने की मांग चल रही है लेकिन सरकार उन्हें अलग क्यों नहीं कर रही है? अगर पृथक राज्य विकास की परिभाषा गढ़ता है तो क्या विकास के लिए इन राज्यों को अलग होने का हक नहीं है?
अगर छोटे राज्यों के निर्माण से समस्या समाप्त हो जाएगी और देश में राजनीतिक स्थिरता का माहौल बना रहेगा तो देश के सारे बड़े राज्यों से उठ रही छोटे राज्यों की मांग को मानकर छोटे पृथक राज्य बना दिए जाए। अगर छोटे राज्य विकास का मॉडल तैयार करते हैं तो महाराष्ट्र का विकास सबसे कम और त्रिपुरा और नागालैंड जैसे राज्यों का विकास सबसे ज्यादा होना चाहिए। यानि राज्यों के पृथक करने के पीछे किसी विकास की परिभाषा काम नहीं करती बल्कि राजनीति के फायदे का कारोबार चलता है। अगर 2014 का आम चुनाव नहीं होता तो यूपीए द्धारा तेलंगाना को पृथक करने की घोषणा के लिए और भी लंबा इंतजार करना पड़ता। पूर्व में इस मामले पर यूपीए द्वारा जिस तरह से विरोध और धोखाधड़ी की गई है उससे भी यह मानने में तकलीफ हो रही है कि शायद यूपीए की सरकार बनने के बाद इस मामले को फिर से ठंडे बस्ते में न डाल दिया जाए। किसी भी राज्य के उत्थान और पतन के लिए वहां के राजनीतिक और प्रशासनिक हालत जिम्मेदार होते हैं यदि राजनीतिक स्थिरता हो तो राज्य का विकास बहुत तेजी से होने लगता है। ऐसे में सरकार के लिए पृथक तेलंगाना मंजूरी जनता को तेल लगाना है यानि राजनीतिक फायदे के लिए जनता की सेवा।

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