मंगलवार, 8 मई 2012

दिन थे वो कुछ ऐसे
 जो व्यर्थ के गुजार रहा था
 मैं बड़े अरमान से गया था गांव अपने
 सोचा था खुब मस्तियां होंगी 
 ख्रुब सारी शरारते होंगी
 कुछ अपनेपन का एहसास होगा
 लोग भावविभोर होकर गले मिलेंगे
 लेकिन सब व्यर्थ, पता है क्यूं?
 शहरों की तरह गांव में भी लोग
 संवेदनहीन हो गए हैं
 वहां अब खुशियां बिकने लगी है
 वहां भी प्यार का बाजार लगने लगा है
 वहां अब शहर रोज दौड़कर चली आती है
 अपने रंग में सराबोर कर देती है
 गांव की हर सुबह को
 गाड़ी की खिड़की से झांककर देखा था
 बिल्कुल भी बदला सा नहीं लगा था गांव
 मिट्टी में वही सौंधी सी खुशबू
 लेकिन उस खुशबू से वो खुशी गायब थी
 पता है खुब तलाश करता रहा, हर जगह  देखा
  गांव खुद अपना अस्तित्व तलाश रही थी
 खुद हर रोज इस जद्दोजहद में लगी थी
 वो कैसे बचाए वो अपने यौवन की शीलता
 कैसे बचाए वो अपने यथार्थ को
 जिसकी जमीन पर उसका आधार टिका था
 चिल्लाकर बोली थी मुझसे झल्लाहट में
 बचा सकते हो तो बचा लो मेरे अस्तित्व को
 नहीं तो क्या बताओगे अपने लाल को की
 इन बड़ी-बड़ी इमारतों और तेज भागती गाड़ियों के मध्य
 कुचलकर दम तोड़ दिया है मैंने
 फिर मेरी कोई तस्वीर भी तो नहीं है तुम्हारे पास
 आखिर क्या देखकर और दिखाकर दिल बहलाओगे
 अपना और अपने नौनेहाल का
 मैं तुम्हारे होते हुए भी कहीं इतिहास न बन जाऊं 
 मैं असमर्थ था बेवस था 
सो लौट आया हूं गांव से दबे पांव छुपते हुए
 ये सोचकर कहीं फिर से मैं उसकी नजर में न पड़ जाऊं
 और फिर वो मुझे आवाज न दे बैठे
 बचा लो मुझे... और मेरे अस्तित्व को...।

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