गुरुवार, 21 नवंबर 2013

पोस्ट बॉक्स नंबर पर भी दो आर.टी.आई. के तहत सूचना


सूचना जब परोसने लगी मौत का खौफ तो पोस्ट बॉक्स नंबर पर लग गई अदालती मुहर

सरकार ने संविधान से पारित कराकर सूचना के अधिकार का उपयोग करने की आजादी तो लोगों को दे दी लेकिन लोगों की सुरक्षा इस कानून के इस्तेमाल की शुरुआत से ही अहम मुद्दा बनने लगा। 2005 से लेकर आजतक कई सामाजिक कार्यकर्ता जो सूचना के इस्तेमाल का उपयोग कर सरकारी और अफसरशाही भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश में लगे थे वो मौत के आगोश में चले गए। यानि सूचना मांगी और मौत मिली। सूचना के अधिकार कानून को देश के लोग मौत का हथियार कानून भी कहने लगे तो ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं होगी क्योंकि सूचना मांगने वाला सत्तासिनों और अफसरशाहों से ज्यादा ताकतवर नहीं हो सकता खासकर उनसे जो भ्रष्ट हैं ऐसे में सूचना मांगना यानि अपनी हत्या के लिए खुद हथियार आंगने के बराबर ही तो हो गया है।





सूचना का अधिकार अधिनियम को भारत के संसद द्वारा जब जून, 2005 को इसके कानून बनने के 120 वें दिन बाद 12 अक्तूबर, 2005 को लागू किया गया तब इसका एक ही उद्देश्य था। वह था देश की आवाम तक सूचना का आदान-प्रदान करना जो वो चाहते हैं। भारत में भ्रटाचार को रोकने और समाप्त करने के लिये इसे बहुत ही प्रभावी कदम बताया गया। इस नियम के द्वारा भारत के सभी नागरिकों को सरकारी आंकड़ों, सूचनाओं और प्रपत्रों में दर्ज सूचना को देखने और उसे प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया। संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत सूचना का अधिकार भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का एक भाग है। अनुच्छेद 19(1) के अनुसार प्रत्येक नागरिक को बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। इसी को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है यहां जनता मालिक है। इसलिए लोगों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि सरकारें जो उनकी सेवा के लिए हैं, वह क्या कर रहीं हैं? यानि नागरिकों के पास यह जानने का अधिकार है कि उनका धन किस प्रकार खर्च हो रहा है या सरकार उनके हित के लिए किस तरह के काम कर रही है जो समाज और देश के हित में हो।
सरकार ने संविधान से पारित कराकर सूचना के अधिकार का उपयोग करने की आजादी तो लोगों को दे दी लेकिन लोगों की सुरक्षा इस कानून के इस्तेमाल की शुरुआत से ही अहम मुद्दा बनने लगा। 2005 से लेकर आजतक कई सामाजिक कार्यकर्ता जो सूचना के इस्तेमाल का उपयोग कर सरकारी और अफसरशाही भ्रष्टाचार को उजागर करने की कोशिश में लगे थे वो मौत के आगोश में चले गए। यानि सूचना मांगी और मौत मिली। सूचना के अधिकार कानून को देश के लोग मौत का हथियार कानून भी कहने लगे तो ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं होगी क्योंकि सूचना मांगने वाला सत्तासिनों और अफसरशाहों से ज्यादा ताकतवर नहीं हो सकता खासकर उनसे जो भ्रष्ट हैं ऐसे में सूचना मांगना यानि अपनी हत्या के लिए खुद हथियार आंगने के बराबर ही तो हो गया है। आंकड़ों की माने तो वर्ष 2010 के बाद से 23 आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है यह अपने आप में हैरत कर देनेवाली संख्या है। लोगों ने इस कानून का उपयोग करने में अपनी जान को जोखिम में डालने की हिम्मत नहीं की और जिन्होंने की उनका भी हाल कुछ ज्यादा अच्छा नहीं है। बड़े सामाजिक कार्यकर्ता या तो मार दिए जाते हैं या आरोपों के घेरे में फांस दिए जाते हैं यह सूचना की ताकत नहीं भ्रष्टाचार का बल बोलता है। सरकार और न्यायालय ने ऐसे कार्यकर्ताओं की सुरक्षा को लेकर कई बार चिंता जताई। न्यायालय की तरफ से इनकी सुरक्षा के लिए सरकार द्वार उचित व्यवस्था किए जाने के आदेश भा जारी किए गए लेकिन इन सब से होता क्या है एक कहावत है कि बिल्ली को दूध की रखवाली का जिम्मा सौंपा जाए तो वह पतीला चाट ही जाएगी। कुछ ऐसी ही व्यवस्था ने इस कानून को भी संदेहास्पद बना रखा था आप सुरक्षा की जिम्मेवारी उस पर सौंप रहे हैं जो कहीं न कहीं प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से इस भ्रष्टतंत्र का हिस्सा हैं ऐसे में वो अपने या अपने भ्रष्ट परिवार के बाकी भाईयों के गले में फंदा तो पड़ने नहीं देंगे। रही बात आप जिस को अपने भ्रष्टाचार की सूचना देने जा रहे हैं उस आवेदक का पूरा ब्यौरा आपके पास मौजुद है यानि आपको इसके सफाये के लिए पहले से पूरी सूचना दे दी गई है या तो आप सूचना इन्हें दें या अपनी सूचना से बचने के लिए इन्हें किसी अखबार की खबर बनवा दें। इस कानून के इसी परेशानी को देखते हुए कलकत्ता उच्च न्यायालय में अभिषेक गोयनका ने याचिका दायर कर कहा था कि आर.टी.आई. के तहत जानकारी मांगने वाले आवेदक की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आवेदक की व्यक्तिगत जानकारी मांगे जाने पर रोक लगनी चाहिए। अदालत को भी गोयनका की बातों में दम लगा और अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कलकत्ता हाई कोर्ट ने कहा है की आर.टी.आई. के तहत जानकारी लेने के लिए अपनी व्यक्तिगत जानकारी देने की जरूरत नहीं है और आवेदक सिर्फ पोस्ट बॉक्स नंबर देकर भी जानकारी हासिल कर सकता है | याचिका में कहा गया था की वर्ष 2010 के बाद से 23 आर.टी.आई. कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है, इसिलए आवेदक को पोस्ट बॉक्स नंबर के जरिये भी जानकारी मांगने की छूट मिलनी चाहिए| चीफ जस्टिस ए.के. बनर्जी और जस्टिस डा. बास्क की बैंच ने याचिका पर सुनवाई करते हुए आदेश दिया की अगर आवेदक पते की जगह सिर्फ पोस्ट बॉक्स नंबर भी देता है तो उसको जानकारी उपलब्ध करायी जाए| बैंच ने कहा की आवेदक की सुरक्षा काफी महत्वपूर्ण विषय है और इसके लिए यह कदम उठाना आवश्यक है | कोर्ट ने अपने आदेश को केंद्र सरकार को भेजने का आदेश देते हुए कहा कि सरकार इस आदेश की प्रति और सूचना सभी विभागों को भी उपलब्ध करा दे |न्यायालय का यह फैसला सच में उनलोगों के लिए राहत लेकर आया है जो आजतक भ्रष्ट तंत्र की चक्की के दोनों पाटों के बीच पीसते आए हैं और जिंदगी के ड़र और मौत के खौफ ने उनके हाथ सूचना मांगने के लिए कलम उठाने से पहले ही बांध कर रख दिए हैं। अगर सरकार ने न्यायालय के इस फैसले को लागू कर दिया तो कई हाथ बंधन मुक्त हो जाएंगे और फिर भ्रष्टता की चरमता में कुछ तो विराम जरूर लगेगा।

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