गुरुवार, 26 जनवरी 2012

देशभक्ति कटघरे में, देश हाशिये पर

देश की चौंसठ साल की आजादी और उसके बाद से विकास का घूमता पहिया। दोनों मिलकर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांप्रदायिक व्यवस्था में जो परिवर्तन लाया है, वह सही मायनों में विचित्र सा है । देश आज जिस हालात से गुजर रहा है उसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं तो दूसरी तरफ देश में बढ़ रही ऊंची-ऊंची इमारतों की श्रृंखला, सड़कों पर तेज भागती जिंदगी को देखकर खुशी का भी अनुभव होता है । ऐसे में विकास और विचार के दो पाटों के बीच पिस रही जनता का जो हाल हो रहा है, उससे स्पष्ट हो गया कि विकास की परिधि में विचार का पक्ष अगर मजबूत न हो तो विकास का कुछ खास मतलब नहीं रह जाता है और अगर केवल विचार को मुख्य व्यवस्था से जोड़कर रखा गया होता तो विकास आज कोसों दूर खड़ा होकर मुंह चिढ़ा रहा होता । लेकिन, इन दोनों के बीच देशभक्ति का मतलब क्या रह गया है और विकास व विचार के बीच आज देश कहां खड़ा है। यह भी देश की जनता को ही सोचना पड़ेगा । भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में पैदा हुआ तो अपने आप को सौभाग्यशाली समझने लगा धीरे-धीरे समय के साथ गर्म, सर्द, बारिश, बसंत जैसे कई अनोखे मौसमों के झूले पर झूलता, गाता, इतराता, गिरता, संभलता बेफिक्र सा मौसमों की अदला-बदली के तरह देश और समाज के बदलते हालात को देखता रहा जैसे-जैसे देश बदला समय बदला मैंने अपने आपको भी बदलते पाया । छोटा था तो देशभक्ति के मायने नहीं समझ पाता था बड़ा हुआ तो इसके मायने समझ के परे होते चले गये । कोई कहता कि देश के लिए तिरंगे की शान के लिए जान गंवाना देशभक्ति है । मैंने क्या शायद देश में पैदा होने वाले हर बच्चे ने देशभक्ति की यही परिभाषा समझी है या उन्हें यही परिभाषा समझाई गई है । मैं भीइस परिभाषा को बदलने का पक्षधर नहीं हूं । लेकिन परिभाषा के छूटे आयामों को जानने की उत्सुकता जरूर रखता हूं । अपने जीवन के शुरूआत से लेकर आज तक देश में जाति और वर्ण व्यवस्था को पलते देखा तो हमेशा यह सोचता रहा कि पता नहीं कब यह नरपिशाच देश का पीछा छोड़ेगा थोड़ा समझदार हुआ तो पता चला यह सत्ता में काबिज होने और देश को चलाने का हथियार है । जिसको हर पार्टी इस्तेमाल करती है और केवल दिखावे के लिए सामाजिक समानता और सौहार्दता का ढोंग रचा जाता है । आजादी से लेकर आज तक देश में कई आंदोलन हुए और उतने ही विदेशी हमलों से भी देश को दो-चार होना पड़ा। बड़ी संख्या में तिरंगे की शान की रक्षा में लोगों ने प्राण गंवाये तो दूसरी तरफ उतनी हीं बड़ी तादाद में लोगों ने अपनी मांगों को लेकर सरकार के खिलाफ भी मोर्चा खोला । हलांकि मैंने अपने छोटे से जीवनकाल में जो आंदोलन देखा वो अन्ना का देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन था । जिसमें मैंने सरकार के खिलाफ देश की जनता को शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते देखा । इतने ही समय में मैंने देश के भीतर कई आतंकवादी हमलों को देखा सुना और जाना भी । इन हमलों में भी देश के कई सपूत देश की आन बान और शान की रक्षा करते-करते शहीद हो गये, लेकिन राजनीतिज्ञों ने इन शहीदों के उपर भी राजनीति की चादर डालकर कभी इनकी शहादत को ढकने की कोशिश की तो कभी इन पर अपने सियासी शतरंज का पासा बिछा लिया। हलांकि दोनों ही हालात में नुकसान शहीदों का ही हुआ या यूं कहें की देशभक्ति हमेशा कटघरे में ही खड़ी रही । देश के 74 साल के एक बूढ़े ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई तो सियासत के गलियारों से फिर सिंह गर्जना शुरू हो गई । 74 साल के इस बूढ़े पर राजनीति का हथौड़ा चलने लगा उस बूढ़े शेर के ऊपर सरकार ने अनेकों आरोप लगाये । उसके अस्तित्व से लेकर उसकी देशभक्त और निर्भिक आवाज तक को कई बार दबाने की कोशिश की गई या यूं कहें कि उसकी देशभक्ति को कटघरे में खड़ा कर दिया गया । उसके आंदोलन को पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने तरह से भुनाने की कोशिश की, लेकिन देश की तमाम जनता, जो अन्ना के साथ चल रही थी उसके जगने के कारण पर सरकार का ध्यान ही नहीं गया। लेकिन, सरकार की नजर उन अनशन करने वालों पर नहीं है जो सरकार की बिना इजाजत के हर रोज दो वक्त रोटी के लिए लड़ रहे हैं या कह सकते हैं कि बेखौफ अनशन कर रहे हैं। पिछले दस सालों से इरोम शर्मिला सरकार के खिलाफ अनशन कर रही हैं, लेकिन सरकार इन दस सालों में सरकार इरोम की तरफ से बिल्कुल निश्चिंत है क्योंकि वहां तक मीडिया ने अपनी पहुंच नहीं दिखाई है और सरकार को बेवजह जगने की आदत नहीं है। अन्ना के आंदोलन का भी कुछ ऐसा ही हश्र होना था लेकिन भला हो देश की मीडिया का जिसने टीआरपी के लिए ही सही कम से कम अन्ना की आवाज को जनता और सरकार तक पहुंचाया। सरकार की सत्ता के पाये कांपने लगे तो सरकार ने पहले इस देशभक्त की ताकत को दबाने की कोशिश की लेकिन जब देशभक्त बाजुओं के मध्य से सरकार को कई और हाथ उभरते बढ़ते नजर आने लगे तब संसद के अंदर के एसी हॉल में बैठे सरकार के नुमाइंदों के पसीने छूटने लगे थे । सरकार को समझौता कर बात को समय के अनुसार टालने की अपनी आदत का अपना सटीक तरीका याद हो आया था और आनन फानन में सरकार ने वही तरीका अपनाया जो पूर्व में सरकारें करती आई थीं । हलांकि तब लगने लगा कि देशभक्ति केवल देश की शान और तिरंगे की आन की रक्षा का नाम नहीं है। बल्कि, अन्ना की तरह सरकार के गलत रवैये और गलत नीतियों के खिलाफ सीना तान कर खड़े रहना भी देशभक्ति है । लेकिन, देशभक्ति को किस तरह से कटघरे में खड़ा किया जाता है शायद ऐसा सोचकर ही लोग हिम्मत हार जाते होंगे यह मैं जान गया हूं। देश की 70 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है उसके बाद भी शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतों की लंबी कतार बनते मैंने देखा है, उच्च शिक्षा के लिए नये-नये संस्थानों को मैंने शहरों में स्थापित होते देखा है । लंबी- चौड़ी सड़कें और बड़े-बड़े फ्लाईओवर बनते मैंने देखा है । शहरों में तेज भागती गाड़ियां और मेट्रो के सुलभ विस्तार को भी मैंने अपने सामने विस्तार पाते देखा है। आज भी देश में गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, लाचारी, पेय जल की समस्या, स्वास्थ्य की समस्या जैसी कई समस्याओं को तब से आज तक मैं गांवों में जस के तस देखता आ रहा हूं। सरकार शहरों के विकास के आंकड़े दिखाकर जनता को भ्रमित करती रहती है, ताकि बुनियादी समस्याओं की सर्द हवा का एहसास उन्हें न हो पाये जो विकास की धारा में शामिल हो चुके हैं या जिन्हें भारत को विकास का मॉडल करार देने वाले आंकड़े तैयार करने का काम सौंपा गया है। सरकार उनकी तरफ झांककर भी नहीं देखती जो ऐसी समस्याओं के शिकार हैं क्योंकि वो लोग सरकार के इस लुभावने आंकड़े से बाहर आते हैं। क्योंकि वो सरकार के विकास मॉडल के 130 करोड़ की आबादी के बाहर के लोग हैं या यूं कहें की सरकार उनके साथ हमेशा सौतेला व्यवहार करती रही है । सरकार की माने तो देश ने आजादी के इतने सालों में विकास की लंबी छलांग लगाई है फिर भी विदेशी मेहमान भारत में गरीब, लाचार, बेबस, भूखे और नंगे भारत को देखने की ख्वाहिश लेकर आते हैं और सरकार के तमाम विकास के आंकड़ों के मध्य से भी ये विदेशी मेहमान अपने लिए गरीब, लाचार, भूखे और नंगे भारत को खोज लेते हैं। जिसको वो देखने के ख्वाहिशमंद हैं । भारत के गांवों में आज भी अशिक्षा चरम पर है, स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर देश में कई हजार लोगों पर एक डॉक्टर है, कई किलोमीटर के दायरे में एक स्कूल है, पीने के पानी , बिजली और रहने के पक्के घरों से आज भी देश की बड़ी आबादी वंचित है । ऐसे में देश की अर्थव्यवस्था भले ही विश्व में अपना एक स्थान बना चुकी हो, लेकिन विकास के मामले में आज भी देश हाशिये पर है । ऐसे में देश में जनआंदोलन और आंतरिक उग्रवाद का पनपना स्वभाविक है। आखिर देश की जनता अपने अधिकारों के लिए इन सत्तासीन लोगों के हाथों कब तक ठगी जाती रहेगी? कब तक उसकी आवाज दबाई जाती रहेगी? ऐसे में लोगों के लिए कभी जनआंदोलन हथियार है तो कभी हाथों में हथियार लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलना इनकी मजबूरी बन गई है । ऐसे हालात में इसी माध्यम से लोग सरकार तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं । हालांकि हाथों में हथियार लेकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलना सही तरीका नहीं है। लेकिन, सरकार जब बहरी और गूंगी हो तो देश की आवाम क्या करे? क्योंकि सरकार की नजरों में जनता का शांतिपूर्ण आंदोलन भी उग्रवाद की ही श्रेणी में आता है । ऐसे में इस तरह की देशभक्ति को सरकार ने कटघरे में ला खड़ा किया है। अगर ऐसा नहीं है तो देश पर शहीद होने वाले या अपनी मांग को लेकर सड़कों पर प्रदर्शन या अनशन करने वाले के उपर सरकार अरोप- प्रत्यारोप का घिनौना खेल नहीं खेलती । अब देश के इन हालातों को देखकर सचमुच ऐसा लगने लगा है कि देशभक्ति कटघरे में और देश हाशिये पर है ।

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