रविवार, 12 दिसंबर 2010

फिर से बसा रहा हूँ

रंग में नहा रही थी वो रुप की कली,

संग में हवा भी बह रही थी मनचली,

कंचन सा बदन उसका वो काँच की तरह थी,

न जाने वो क्यूँ मेरे पहलू में आ गिरी थी,

उसके बदन पर आज भी संगमरमर सी चमक थी,

चलती थी जब वो लहरा कर मेरे सामने से,

कमर में उसके बला की लचक थी,

था वक्त सुबह का और सूरज भी कुछ लाल था,

लग रहा था मानो कुदरत का कुछ कमाल था,

देखते हीं उसको मैं कुछ यूँ तड़प गया था,

पुछ बैठा था उसे बता तूँ किसकी है गजल,

रब ने तुम्हें क्या सोचकर बनाया है,

किस चित्रकार ने की है तेरी चित्रकारी,

किसके हाथों तूँ सजायी गई है,

अक्ल से मेरी दुश्मनी, मैं शक्ल पे फिदा था,

जद्दोजहद में था मैं वो रात का मंजर था,

बिना उसके सारा जहाँ सुबह से बंजर लग रहा था,

अब चीखता रहा मैं न उसका कोई नाम न पता था,

वो छुप गई थी जहाँ घनघोर अँधेरा पसरा था,

छुप गई थी वो यूँ जैसे लहरें शांत हो गई हों,

जज्बात मेरे गुम थे अरमान बिखरा पड़ा था,

रोकना उसे चाहता था पर कुछ समझ न आ रहा था,

जख्मी था दिल का कोना दर्द से भरा घड़ा था,

आँखों से मेरे अब आँसुओं की धार बह रही थी,

इतने मे हीं मेरे दरवाजे पर दस्तक पड़ी थी,

अब भुलकर भी उसको कैसे भुला सकूँगा,

दिल को अपने कैसे मैं समझा सकूँगा,

दिल को बस मैं इतना ही समझा पा रहा हूँ,

वो शक्ल से थी सुंदर उस पर तूँ क्यूँ था मरता,

जो प्यार करे तुमको तूँ उसे क्यूँ नहीं चुनता,

दिल को मैं इन्हीं बातों से बहला रहा हूँ,

उजड़ा जो दिल का आशियाना उसे फिर से बसा रहा हूँ।

-------------------------------------------------------------------------(गंगेश कुमार ठाकुर)

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