ऐसा देश है मेरा के माध्यम से मैं आप तमाम पाठक से जुड़ने की भरपुर कोशिश कर रहा हूँ चूँकि मैं इस जगत में आपका नया साथी हूँ इसलिए आशा करता हूँ कलम के जरिये उभरे मेरे भावना के पुष्पों को जो मैं आपके हवाले करता हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया के उपहार मुझे उपहार स्वरूप जरूर वापस करेंगे ताकि मैं आपके लिए कुछ बेहतर लिख सकूँ। ..................................आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में ...........................................आपका दोस्त """गंगेश"""
रविवार, 6 मार्च 2011
वसीयत का पन्ना
मुसाफिर हूँ यहाँ पर मैं यारो ठिकाना कुछ नहीं मेरा,
खिदमतगार हूँ यहाँ जमाने का जमाना कुछ नहीं मेरा,
हौसले खुब करता हूँ यहाँ वो लेकिन टूट जाते हैं,
टूट कर खुद बिखरता हूँ नहीं कोई मकां मेरा,
मैं आहें रोज भरता हूँ दवा भी कोई काम नहीं आता,
आसमां से तोड़ लाउँ तारों को लेकिन वो आसमां नहीं मिलता,
ज़िद्द ये है कि मैं चाँद पर अपना प्यारा सा घर बनाउँगा,
मैं चाँद पर रोज जाता हूँ लेकिन ज़मीं वहाँ खाली नहीं मिलता,
सिसकता हूँ यहाँ मैं हर रोज हर पल अपना ग़म भुलाने को ,
खुशी के मारे ग़म को भी भुलाने का कोई बहाना नहीं मिलता,
सफेद चादर की ललक दुनियाँ में किसी को भी नहीं होती,
मैं फिर भी इस पर सोने की ललक लेकर यहाँ हर रोज आता हूँ,
मैं तो बस चाहता हूँ कि आँसू कोई मेरी आँखों से भी पोछ ड़ाले,
लेकिन ख़्वाबों में भी माँ के आँचल का ठिकाना मुझे मिल नहीं पाता ,
अभी तक तो ग़िला मुझको सिर्फ मेरी रूसवाईयों से था,
लेकिन ग़िला तन्हाइयों से भी जाने क्यूँ अब रूक नहीं पाता,
सोचता हूँ कि अब मैं बदल डालूँ जमाने की वसीयत को,
जमाने की वसीयत का कोई पन्ना मेरी समझ में हीं नहीं आता।
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