शुक्रवार, 18 मार्च 2011

ये होली कैसा मेरे बालम है ?
















रंग अजुबे ढ़ंग अजुबे
होली में बजते मृदंग अजूबे
होलीका का जलना अजूबा
भंगों का घुलना अजूबा
दीवानों ने सामत लायी
लोगों का चलना अजूबा
दिन अजूबी रात अजूबा
देश का हालात अजूबा
सत्ता बोझिल सरकार रंगीली
प्रशासन भी इस रंग में गीली
गुंड़ों का तो खुला तबेला
होली का है ये पावन मेला
कही रंग शासन का चढ़ता
कही कुशासन हँस कर बढ़ता
कही सुरक्षा हर दिन सड़ती
कही शराब का दौर चल रहा
आम जिंदगी खत्म हो रहा
पश्चिमी रंग सर पर चढ़ रहा
कही शोर शराबा बढ़ रहा
कहीं खून खराबा हो रहा
पहचान छुप रहा इंसान छुप रहा
दैत्य स्वतंत्र है, हैवान दिख रहा
सुनी सड़क भी बिफर पड़ी है
धू-धू कर जल रही है, सिसक पड़ी है
राखों में इंसान जल रहा
खुशी का सामान जल रहा
मंत्र खत्म है तंत्र खत्म है
आज के दिन जनतंत्र खत्म है
लाशें भी चिल्ला कर कह रही
कैसी ये होली स्वतंत्र है
राम के आने की खुशी खत्म है
रावण आने को स्वतंत्र है
इंसान रो रहा भूखा सो रहा
ठेकों पर ठेकेदार स्वतंत्र है
आवाज होली के गीतों की आती
पर रंग दर्द का हर चेहरे पर दिखता
सब कुछ आज भी वैसा ही है
पर पैसे पर सब कुछ है बिकता
ऐसी होली जल रही आज है
सारी धरा खुद आज दंग है
ये कैसा होली का चढ़ा रंग है
जब रंग की जगह चलती गोली
ऐसे में गले कहाँ से मिल पायेंगे
जब ज़हर कड़वी बोली ने घोली
ये आज की होली का आलम है
अब तू हीं बता मुझको जरा
ये होली कैसा मेरे बालम है ?
..............................(गंगेश कुमार ठाकुर)

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