रविवार, 8 मई 2011

महफिल







वो रंज़ो गम का असर मेरे अंदर देख रहे थे,
हम फिर भी उनकी तरफ गुलाब फेंक रहे थे,
ख्वाबों में उनको छुपाना मुमकिन नहीं था,
हम फिर भी तिरछी निगाहों से उनकी तस्वीर देख रहे थे......
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वो समझा रहे थे उनको जो महफिले हुस्न थे ,
हमे चेहरे पे उनके मासूम अदा की तलाश थी,
साथ था महफ़िल का शोर ज़िन्दगी की तन्हाई भी थी,
हम बावफा समझ बैठे उन्हें जो बदमिजाज़ थे,
गर बेवफाई रास न आती उन्हें वो वफादार हो जाते,
वो बेवफा हो गए जो महफिले बहार थे,
सौगंध थी उनकी वफ़ा का जिसका ज़वाब नहीं था,
हम वफादार कैसे होते हम वफ़ा के गिरफ्तार थे।

.........................(गंगेश कुमार ठाकुर)
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