ऐसा देश है मेरा के माध्यम से मैं आप तमाम पाठक से जुड़ने की भरपुर कोशिश कर रहा हूँ चूँकि मैं इस जगत में आपका नया साथी हूँ इसलिए आशा करता हूँ कलम के जरिये उभरे मेरे भावना के पुष्पों को जो मैं आपके हवाले करता हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया के उपहार मुझे उपहार स्वरूप जरूर वापस करेंगे ताकि मैं आपके लिए कुछ बेहतर लिख सकूँ। ..................................आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में ...........................................आपका दोस्त """गंगेश"""
मंगलवार, 10 मई 2011
सरकार गरीब गरीबी और किसान
भारत के आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद विकास की दिशा और दशा दोनों में हीं बदलाव आया है। अब गाँवों को बिजली, शिक्षा, पानी, सड़क, संचार, स्वास्थ्य सुविधाओं से करीब-करीब जोड़ दिया गया है।सुदूर के कुछ गाँव और शहर जिनमें अबतक इनका अभाव है उनको भी मुख्य धारा में लाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ ऐसा लगने लगा है जैसे ये सबकुछ केवल कागजी कारनामे हैं। केन्द्र और राज्य सरकार विभिन्न परियोजनाओं के जरिये देश के हर गाँव-छोटे शहरों और कस्बों को मुख्यधारा से जोड़ने का या उन तक विकास की रोशनी पहूँचाने का हर संभव कागजी प्रयास कर रही है, ऐसा स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। फिर भी देश में इतने विकास के बाद भी किसी चीज में बदलाव नहीं आया है तो वह है गरीब, गरीबी और किसानों की दशा।
आजादी के बाद से किसानों की समस्याओं का कोई सही निदान सरकार ढूँढ़ पाने में असफल रही है। किसानों के लिए सरकार न तो उत्तम बीज की समुचित व्यवस्था कर पाई, न खाद की, न ही कृषि संबंधित जानकारियों को मुहैया कराने का इंतजाम कर पाई। कृषि के तकनिकी उपकरण भी मुहैया नहीं हो पाये हैं। कृषि के लिए बिजली और पानी की समुचित व्यवस्था करने में भी सरकार अक्षम रही है।लेकिन ऐसा नहीं है कि यही हालात सरकारी दस्तावेजों का भी है उन दस्तावेजों और आंकड़ों की माने तो सरकार इन सभी सुविधाओं को किसानों तक पहूँचा चुकी है।इनमें से अनेक परियोजना का फायदा सरकारी दस्तावेजों में हीं सही किसान लगातार उठा रहे हैं। उपर से सरकार किसानों के समर्थन में कभी-कभी हीं सही किसान अंदोलनों के बाद कृषि उत्पादों के समर्थन मूल्य में इजाफा करती रही है।
लेकिन सरकार का कृषि उत्पादों का समर्थन मूल्य हमेशा बाजार की कीमतों से काफी कम होता है जिस कारण किसानों को मुनाफे का छोटा सा हिस्सा मिल पाता है। उपर से अगर प्रकृति का कहर टूट पड़ा तो किस मुनाफे की बात तो दूर दाने-दाने को किसान मोहताज हो जाते हैं।
सरकार द्वारा किसानों से खरीदा गया अनाज सरकारी गोदामों के अंदर और बाहर सड़ता रहता है लेकिन गरीबों के बीच मुफ्त में इसका आवंटन सरकार उच्चतम न्यायालय के द्वारा फटकार लगाने पर भी नहीं करती है।
इन समस्याओं का जिक्र इसलिए भी जरूरी था क्योंकि 1995 से लेकर 2011 तक केवल विदर्भ में लाखों किसान इन समस्याओं की वजह से आत्महत्या कर चूके हैं।कृषि के महंगे तकनिकी उपकरणों की खरीददारी से लेकर विदेशों से मंगाये गये महंगे बीज के लिए किसानों ने बैंकों और अन्य सरकारी संस्थानों से ये सोचकर कर्ज लिया की पैदावार अच्छी होगी अच्छी कीमत मिलेगी तो फसल से मुनाफा भी अच्छा होगा और आर्थिक स्थिति सुधर जायेगी। लेकिन इनकी सोच के विपरित परिणामों ने किसानों की कमर तोड़ दी और किसानों की हालत बद से बदतर होती चली गई। उपर से ऋण का बोझ बढ़ता चला गया अन्तत: ऋण वसूली के लिये बैंकों और अन्य संस्थानों के लोगों का आना शुरू हो गया किसानों के साथ ऋण वसूली के लिए किए जा रहे व्यवहार असहनीय होने लगे और अन्तत: किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा और आज भी विदर्भ में किसानों द्वारा आत्महत्या का यह सिलसिला जारी है।
इतना कुछ होने के वाबजुद भी केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर किसानों के आत्महत्या के इस प्रयास को रोकने का रास्ता नहीं निकाल पाई हैं। लेकिन सरकारी दस्तावेज वास्तविकता से परे है दस्तावेजों की माने तो वहाँ स्थिति सामान्य है लेकिन स्थिति वहाँ आज भी जस की तस बनी हुई है।
ये अलग बात है कि किसी भी देश के विकास में उस देश का मध्यम वर्ग अहम भूमिका निभाता है। लेकिन भारत जैसे कृषि प्रधान देश के गर्भ में अगर कुछ पल बढ़ रहा है तो वह है गरीब गरीबी और किसानों की दूर्दशा। देश में लगातार किसान आंदोलन होते रहे हैं। सरकार उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों को फायदा पहूँचाने के लिए, सुविधा मुहैया कराने के लिए कई दूरदर्शी परियोजनाओं पर काम कर रही है। ये परियोजनाऐं सरकारी दस्तावेजों से निकलकर अपना स्वरूप भी आसानी से ग्रहण कर रही हैं।
लेकिन निम्न तपके के लोगों के लिए बनाई गई परियोजना सरकारी दस्तावेजों में सजा कर बनाई जाती हैं और धीरे-धीरे इन परियोजनाओं को सरकारी दीमक हीं चाट जाते हैं। इन दस्तावेजों में रह जाती हैं केवल कोरे कागज जिन पर योजनाऐं टंकित की गई होती हैं।
उत्तर प्रदेश में वर्त्तमान में चल रहे यमुना एक्सप्रेस वे परियोजना के लिए सरकार किसानों से जमीन अधिग्रहण करने पहूँची तो किसानों ने इसका खुलकर विरोध किया। किसान सरकार से पर्याप्त मुआवजा और नौकरी की मांग कर रहे थे। जब सरकार किसानों की मांग को अनसुना करने लगी तब किसानों ने सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। किसान सड़कों पर सरकार के खिलाफ उतर आये लेकिन हद तो तब हो गई जब उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों के आंदोलन को दबाने के लिए बल प्रयोग करना शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश में किसानों का ये आंदोलन नयी बात नहीं है इसके पहले दादरी में भी किसानों ने सरकार को जमीन देने से इनकार कर दिया था और अन्तत: सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई पर रोक लग पायी थी। कमोवेश किसानों की ऐसी हालत देश के हर हिस्से में है। किसानों की ऐसी हालात के लिए जितना जिम्मेवार राज्य सरकार है उतना हीं केन्द्र सरकार भी है।
मजेदार बात ये है कि एक तरफ किसान जल रहे हैं आत्महत्या कर रहे हैं देश में महंगाई बढ़ रही है गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे लोगों की संख्या में कमी नहीं आ रही है फिर भी सरकारी परियोजनाओं का रोज नया प्रारूप इनके उत्थान के लिए तैयार किया जा रहा है। इसी बीच योजना आयोग को उच्चतम न्यायालय की फटकार मिलती है। गरीबी पर तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट में स्पष्ट दर्शाया गया है कि देश की 35 प्रतिशत आबादी गरीब है रिपोर्ट में यह भी है कि गाँव में 15 रु. तक प्रतिदिन और शहरों में 20 रु प्रतिदिन तक खर्च करनेवाले लोग गरीब हैं समिति की इस रिपोर्ट पर गौर किया जाये तो साफ हो जाता है कि देश में अब गरीब लोग नहीं हैं ऐसे में सरकार द्वारा दी जानेवाली बीपीएल व्यवस्था को समाप्त कर देने की जरूरत है।
उच्चतम न्यायालय को सरकार और योजना आयोग की इस आंकडे पर आपत्ति होना तो सही ही है क्योंकि देश में जनता की स्थिति स्पष्ट कर रही है कि सरकार द्वारा गरीबी उन्मुलन और रोजगार मुहैया कराने के सारे कार्यक्रम विफल हो चूके हैं। नरेगा और मनरेगा जैसी योजना पर सरकार द्वारा खर्च किया जाने वाला धन देश की राजधानी से गाँवों तक पहूँचने तक समाप्त हो चूका होता है। सरकारी कागजों पर रोजगार भी मुहैया हो जाता है और मजदूरी भी दे दी जाती है। ऐसे में गरीबों की पहचान करने का यह तरीका तो बेहद लुभावना है। देश में अगर सही तरीके से जाँच की जाऐ तो पता चलेगा कि बीपीएल कार्डधारक ऐसे लोग हैं जो किसी भी हिसाब से इस श्रेणी में नहीं आते हैं।
केन्द्र और राज्य सरकार ऐसी व्यवस्था के तहत अगर योजनाओं का प्रारूप तैयार करती रहीं तो देश में न तो गरीब कम होंगे न गरीबी और न हीं किसानों और मजदूरों की दशा में सुधार हो पायेगा। इतना कुछ करने पर भी स्थिति ढाक के तीन पात वाली हीं बनी रहेगी।
ऐसे में अगर उच्चतम न्यायालय सरकार की कार्यशैली और कार्यकुशलता पर सवाल उठाती है और समय-समय पर फटकार लगाती है तो यह बिल्कुल जायज है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें