रविवार, 28 अगस्त 2011

कुछ दे दो ना साहब......



महानगर की लालबत्ती पर,
मरियल सा जिस्म लिये,
करूण आवाज के साथ,
एक हाथ आनायास ही,
मेरे सामने पसर गया था,
फटी सी आँखों से मैंने,
उसकी तरफ देखा तो,
मेरे सारे सवालों के जबाब,
क्रमवार मुझे मिलते चले गये,
ज़मीर तो बचा था उसका,
लेकिन पेट की आग ने,
उसके अंदर के आत्मसम्मान को,
जला ड़ाला था,







ऐसा लगता था,
भुखे मरने से बेहतर,
इसने कुछ मांगने को हाथ,
फैला दिया था,
चेहरे पर इसके,
हजार भाव,
आते और चले जाते थे,
रोटीयों की तरफ,
इसकी तिरछी नजर होती,
पर पैसे से बिकते,
पेट की आग बुझाने के,
इन सामानों के लिए,
इसके पास कोई,
ठोस व्यवस्था नही थी,







दुत्कार की मार खाकर,
वो बेशर्म हो गया था,
आत्मसम्मान गिरवी रखकर,
वो भुख से लड़ने का,
सामान जुटाने में लगा था,
हाथों की लकीरें भी,
धूल और मिट्टियों से,
धुंधला गयी थी,
उसके भविष्य का चेहरा,
इस धूल और मिट्टी में,
समा गया था,
चेहरे पर उसके.
शर्म की तो नही,
पर गाड़ियों के धुँऐं की,
कालिक पूत गयी थी,
कपड़ों से शरीर का,
हर अंग बगले झाँक रहा था,








पैरों की ऐड़ियों ने भी,
लालबत्ती के चौराहे के,
रास्तों को नाप लिया था,
वो लालबत्ती के होते ही,
गाड़ियों के पास भागकर आता,
और बोल उठता,
सुबह से कुछ नहीं खाया,
कुछ दे दो साहब,
कुछ दे दो ना साहब,
कुछ निगाहें,
उसकी आवाज की तरफ उठती,
कुछ हाथ,
पैसे देने को बढ़ते,
कुछ आँखें उसकी तरफ से,
फेर ली जाती,
लेकिन घंटों मैंने,
वहाँ खड़े होकर,
बस यही देखा था,
कि उसकी आवाज के साथ,
उसके हाथ भी,
लोगों के सामने,
पसर जाते थे,








कुछ मिले न मिले,
उसके चेहरे पर,
निराशा की,
लकीर नही बनती थी,
होती भी कैसे,
लकीरों को तो,
उसकी भुख,
और गाड़ियों के धुँऐं ने,
काला कर दिया था,
बस उसके,
चेहरे के भाव,
और शब्द,
इतना ही कहते थे,
भुखा हूँ,
कुछ दे दो साहब,
कुछ दे दो न साहब,

-------------------------------------(गंगेश कुमार ठाकुर)


1 टिप्पणी:

  1. ye aapka blog ki kavita mujhe bahut pasand aayi h.isssee aapki creativity ki dad deta hu.and thanx to be a good frndsip with u.i m very thankful to god that give me such inteligent type of frnds.u really a talented person.

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