रविवार, 11 दिसंबर 2011

मैं और मेरी ज़िंदगी


वो खुशियों भरे दिन थे
जो चले गये ज़िंदगी से
अब बची है सिर्फ
तन्हाई, तिरस्कार और संभावनाओं से
सराबोर दिन का वक्त
ढ़ूँढना चाहता हूँ
ज़िंदगी के इन दिनों में
संभावनाओं की असीम सीमाओं को
साथ हीं तन्हाई से
निपटने का नया रास्ता
तिरस्कार भरे नज़रों से
बचने का एक सुलझा तरीका








मैं पहले खुश था
क्योंकि नहीं था
तन्हाई का अंधेरा मेरे जीवन में
न हीं संभावनाओं की तालाश में
भटकने का मौका था
और तिरस्कार भरी नजरें
तो पास भी नहीं फटकती थीं
लेकिन कब बचपन से जवानी आई
और इन तीन नये आयामों ने
दस्तक दे दिया मेरे जीवन में
पता भी नहीं चला मुझे तो






अब पूरजोर कोशिश में लगा हूँ
कि लोगों से जुड़कर
अपनी तन्हाई मिटा सकूँ
लोगों की तिरस्कार भरी नजरों में
अपने लिए आदर और सम्मान
का भाव पैदा कर सकूँ
लेकिन यह तभी संभव है
जब मैं अपने आप को
संभावनाओं के असीम सागर में
गोता लगवाकर अपने लिए
एक जगह बना लूँ








जानता हूँ मैं
फिर खत्म हो जायेंगी
सारी तन्हाई, सारा तिरस्कार
और फिर से लहरा उठेगा
आदर-सम्मान प्यार और मिलन
का वही लहलहाता पौधा..

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