सोमवार, 2 जनवरी 2012

विकास नहीं विमर्श की जरूरत है


देश में जाति आधारित आरक्षण या यूँ कहें कि विकास की सीमा से दूर खड़े जाति विशेष को विकास की मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था की शुरूआत की गई थी । केवल भारत ही नहीं बल्कि अमेरिका, रूस, चीन, जापान, इंग्लैंड़ और न जाने ऐसे कितने ही देशों में जो पहले से ही साधन संपन्न हैं विकास की मुख्यधारा से कई जातियां आज भी दूर हैं या कहें तो विकास की मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रसायरत हैं । ऐसे में भारत जैसे विकासशील देश में अगर ऐसी सामाजिक विषमता देखी जा रही है तो ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि आजादी के 64 साल गुजरे हैं इसके पहले देश में वर्ण व्यवस्था या जाति व्यवस्था सर चढ़कर बोलती थी जाति के आधार पर देश में लोग पहचाने जाते रहे । आरक्षण की शुरूआत के दिनों से लेकर आजतक भारत के सामाजिक संरचना में क्या बदलाव आया है यह तय कर पाना थोड़ा कठिन है । कठिनाई इसलिए क्योंकि सामाजिक संरचना में केवल बाहरी बदलाव नजर आ रहा है आंतरिक बदलाव आज भी नाम मात्र का है । समय-समय पर संविधान में संशोधन द्वारा आरक्षण की सीमा बढ़ाते-बढ़ाते पचास प्रतिशत तक पहुँचा दिया गया । अंत में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से ज्यादा नहीं होने की बात कही गई । लेकिन इस पचास प्रतिशत आरक्षण के रहते हुए क्या सामाजिक संरचना में बदलाव आ पाया है यह प्रश्न विचारणीय है । देश ने 2011 में आर्थिक उदारीकरण के बीस सावन भी देख लिए । इस बीच पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझता रहा । आर्थिक उदारीकरण के बाद से भारत के हर वर्ग या समुदाय में एकाएक तेजी से बदलाव को देखा गया है हाथों में मोबाईल फोन, कंप्यूटर, मोटर बाईक और न जाने इस तरह के कई संसाधनों की भरमार देश में लग गई । ऐसा नहीं है कि इस संसाधन को उपयोग में लाने वाले केवल आरक्षण की परिधि से बाहर रखे गये जाति, संपन्न जाति या समुदाय के ही लोग हैं बल्कि इस तरह के संसाधन का उपयोग ऐसे भी लोग कर रहे हैं जो आरक्षण की परिधि के अंदर आते हैं यानि सरकार की माने तो आरक्षण से देश में विकास की लहर दौड़ पड़ी है । सरकारी रिपोर्ट की माने तो गाँवों में 15 रुपये और शहरों में 21 रुपये प्रतिदिन कमाने या खर्च करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा से उपर है या यूँ कहें कि ऐसे आंकड़ों के हिसाब से देश में गरीबी समाप्त हो चुकी है । क्या जाति आधारित आरक्षण की वर्तमान व्यवस्था से ऐसा नहीं लगता कि वोट बैंक की राजनीति को सफल करने का ये नया हथकंड़ा है जिसे पक्ष-विपक्ष सभी अपना रहे हैं ? कुछ नई सोच के साथ अगर इस आरक्षण पद्धति को देखा जाए तो स्पष्ट पता चल जायेगा कि आखिर विकास की मुख्यधारा में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को लाने के नाम पर जो आरक्षण की व्यवस्था की गई है उसकी जमीनी हकीकत क्या है । मैं आज भी जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था और सामाजिक समानता कायम करने वाली व्यवस्था का पूरजोर समर्थन करता हूँ लेकिन आरक्षण के नाम पर हो रही राजनीति का उतना ही सशक्त विरोध भी करता हूँ । भरत गाँवों का देश है आजादी के बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि - “अल्पसंख्यक आम तौर पर एक अलग सांस्कृतिक समूह है जो हमेशा से भेदभाव और शोषण के शिकार होते रहे हैं, सामाजिक संरचना में बदलाव के बाद भी अल्पसंख्यक हमेशा बहुसंख्यकों के सिद्धान्तों से समझौता करने के लिए मजबूर रहे हैं और बहुसंख्यकों ने उनके संघर्ष के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है”।
दूसरी ओर देश में बहुमत उन प्रमुख समूहों का रहा है जिनके हाथों में शक्ति थी और जो अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से अधिक से अधिक आनंद लेने की क्षमता रखते थे.
समाज में दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों की भागीदारी सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय क्षेत्रों में ना के बराबर रही है या इन्हें इन क्षेत्रों में भागीदारी के दौड़ से बाहर हीं रखा जाता रहा है । समाज में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की भागीदारी का अनुमान और इनके बीच के संबंधों का अनुमान भी उनके शक्ति को आधार मानकर की गई गणना के द्वारा ही लगाया जा सकता है । यह एक महत्वपूर्ण कारक है कि किसी-किसी देश में एक अल्पसंख्यक समूह होता है जबकि दूसरी तरफ हमारे देश में कई अल्पसंख्यक समूहों के लोग रहते हैं ।
समाज में कभी भी बहुसंख्यक लोगों को सामाजिक तिरस्कार का सामना नहीं करना पड़ा है जबकी दूसरी और अल्पसंख्यक हमेशा से सामाजिक तिरस्कार का दंश झेलते आये हैं.
बहुसंख्यक हीं हमेशा समाज का वैचारिक और व्यवहारिक प्रतिनिधित्व करते रहे हैं और अल्पसंख्यकों को इससे जुड़ने का मौका नहीं मिल पाया है । अल्पसंख्यकों का शोषण समाज में मानसिक, शारीरीक के साथ-साथ सांस्कृतिक तौर पर किया जाता रहा है जो सच में एक चिन्ता का विषय है । जबकि समाज में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को हर तरह के सामाजिक और सांस्कृतिक तौर पर समान अधिकार प्रदान करने की जरूरत है ।
अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों की पहचान की गई है जबकि भारत में इनके पहचान का आधार धार्मिक नहीं है, यहाँ अल्पसंख्यक समुदाय में से कई समुदाय के लोग समय-समय पर धर्म परिवर्तन करते रहे हैं और फिर भी उनकी स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव देखने को नहीं मिलता ।
देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था की गई है लेकिन उसका लाभ भी उन लाभुकों को नहीं मिल पा रहा है जिनको इसका लाभ मिलना चाहिए । क्योंकि निम्न शिक्षा के परिदृश्य में कोई बदलाव नहीं आया है, आज भी गाँवों में पल बढ़ रहे निम्न जाति के बच्चे इसलिए अपने पारिवारिक रोजगार को अपना रहे हैं क्योंकि उनके पास निम्न शिक्षा प्राप्त करने की समुचित व्यवस्था नहीं है । नरेगा और मनरेगा जैसी योजनाओं के होते हुए भी निम्न जाति के लोग अपने रोजगार के अधिकार से वंचित हैं क्योंकि कार्यक्रम केवल बनाया गया है इसको लागू करने से लेकर संचालित करने तक कहीं भी कोई सटीक व्यवस्था नहीं है जिससे लाभुक तक लाभ पहुँच पाये । कार्यक्रमों की घोषणा के साथ ही सियासी घालमेल की शुरूआत हो जाती है और रही सही कसर लाभुक तक पहुँचने से पहले कर्मचारी, ब्यूरोक्रेट्स और पंचायती व्यवस्था कर चुकी होती है । संसद में आरक्षित कोटे से जीतकर आये उम्मीदवार भी सदन तक पहुँचते-पहुँचते इस बात को भूल जाते हैं कि आरक्षण की व्यवस्था राजनीति का नहीं सामाजिक समानता लाने और विषमता को दूर करने के लिए है ।
आदिवासियों की हालत तो देश में और भी बद से बदतर है न तो इनको सरकारी परियोजनाओं का लाभ मिल पाता है और न ही इनकी तरफ सत्ता की नजर होती है हाँ संसद के अंदर बैठे-बैठे इनकी स्थिति पर चिंता जरूर जताई जाती रही है । आदिवासी कभी अपनी भूख से लड़ते हैं तो कभी अपने हीं लोगों से जो उन्हें सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को कहते हैं और इनसे निपटते-निपटते कब सरकार का गुस्सा इन पर फूट पड़ता है इन्हें खुद भी पता नहीं चलता । कभी नक्सलवाद, कभी मुखबिरी जैसे कई आरोपों के शिकार ये होते रहते हैं और इनकी सजा भी इनको मिलती है तन पे कपड़े नहीं होते, रहने को घर नहीं होता, खाने को अनाज नहीं होता लेकिन ड़र हमेशा इस बात की लगी रहती है कि सरकार और उग्रवादी संगठन कब इन पर इल्जाम लगाकर इन्हें सजा दे दे पता नहीं । ऐसे में आरक्षण से इनके अंदर क्या-क्या बदलाव आया है ये समझ पाना कठिन नहीं लगता पर एक कठिन सवाल है कि आखिर इनकी स्थिति में बदलाव क्यों नहीं हुआ ?
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि इनके उत्थान के लिए, विकास के लिए चाहे जिस मंशा से भी आरक्षण की व्यवस्था की शुरूआत की गई हो लेकिन अब आरक्षण केवल राजनीति का हिस्सा बनकर रह गया है । केवल इतना ही नहीं ये तो कुछ मुख्य बिंदु हैं जिसपर विचार किया जा रहा है या जो देखा जाता रहा है अंदर ही अंदर इन जातियों में जो घुटन, जो दर्द पनप रहा है उसी का नतीजा है कि आज नक्सल और इस तरह के कई संगठन देश में अपनी जड़ें मजबूत कर रहे हैं, जिससे देश की आंतरिक व्यवस्था को इतना बड़ा खतरा पैदा हो गया है जितना शायद बाहरी लोगों से नहीं है । अंतत: यही सवाल शेष रह जाता है कि आखिर में जरूरत किसकी है । विकास की या फिर विमर्श की ?




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