शुक्रवार, 1 जून 2012

एक बांझ पथ हूं मैं

तुम सुर हो तुम ताल हो

तुम सागर हो तुम आसमां हो

ये तेरी खुली बांहों का घेरा

तेरे सुनहरे बालों की घटा

रात की तन्हाई का मंजर

तेरा मेरे सपनों में निर्विरोध आना-जाना

जिद्द थी तुम्हारी और मैं मजबूर

उस पथ की तरह

जिसके कलेजे को न जाने कितने

पैरों तले रोज रौंदा जाता है

कई बार मेरे मन के पथ का

कोख उजाड़ दिया है उन पैरों ने

सूखने लगी है मेरे पथ की वक्षस्थली

उससे बहने वाली दूध की धारा ने

रास्ता बदल लिया है अपना

पता है, मुझे भी नहीं पता था

उसने अपना स्वरूप भी बदल लिया है

अब तो वह आंसू बनकर

आंखों के रास्ते टपकने लगा है

पता है अब मेरे पथ के गर्भ में

पलने वाले बच्चे की किलकारी भी

सिसकियां बनकर उभरने लगी है

मेरे अंतर्मन से

तुम तो सब जानती हो

फिर भी तुममें इतनी कठोरता

इतनी निष्ठुरता कहां से आई

तुम भी तो स्त्री हो

समझ सकती हो कोख उजड़ने का दु:

फिर क्यूं तुम मेरे सपने में आकर

मेरे दिल के पथ पर उभरने वाले सपने को

कुचल कर मेरे सपनों का गर्भपात

करा देना चाहती हो

पता है अगर तुम ऐसा करने में

कामयाब हो भी गई

तो भी क्या हासिल होगा तुम्हें

मेरा तो गर्भपात ही होगा न

लेकिन तुम तो हत्या के दोष से

अपने आप को मुक्त नहीं कर पाओगी

वो भी एक नवजात शिशु की हत्या का

आरोप लगेगा तुम पर

मैं नहीं चाहता की लोग तुम्हें

हत्यारन कहकर संबोधित करे।

4 टिप्‍पणियां:

  1. श्री गणेश जी की रचना....
    सामयिक दुःख को समेटे..
    मन को विव्हल कर रही है...............
    नई-पुरानी हलचल का आभार
    मुझे इस ब्लाग से परिचित करवाया
    सादर

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  2. वा‍ह क्‍या रचना कि है आपने सराहनिय अतुलनिय है

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