बुधवार, 2 जनवरी 2013

अजंता सी, ऐलोरा सी तस्वीरें


----गंगेश कुमार ठाकुर

तेरी निगाहों के खंजर से, कई तन्हा दिल हो गए बंजर
कहीं दहकता रह गया दरिया, कहीं छिछला पड़ा समंदर
वजन थी रात की बातों में, सुबह सारी बातें हुई हल्की
वो सारी रात पीते रह गए, कदम थोड़ी सुबह को बहकी
अमीरी में नशे का पता, अब कहां चलता है साकी
जाम खाली पे खाली हो गया, पर प्यास अब भी है बाकी
पर्दे में कैद हुस्न की सराफत से, कोई कब इनकार करता है
दिलों के टूकड़े कई होते हैं, दर्द फिर भी नहीं उभरता है
सराफत में जो आफत है, वो सर पे भारी पड़ता है
आदमी शर्म के मारे, जमी से बाहर ही गड़ता है
इवादत में न मंदिर, न ही मस्जिद देखी जाती है
जब इवादत खत्म होती है, तब मजहब याद आता है
गरीबों पे कभी मौसम का, कोई रंग नहीं चढ़ता
वो सर्द हवाओं में खुद को, मखमल में लिपटा महसूस करता है
जुनू ऐसा कोई जो सर पे, बैठे मौत की हद तक
उठाकर फेक देता है, इंसा तन का हर लिवास अपना
वो तो बस कफन ही, बांध कर सर पर निकलता है
किसी को जिस्म पे उसके, दूसरा चिथड़ा नजर नहीं आता
वसूली जिंदगी हर सख्स से, मौत आने पर भी करती है
नहीं तो मर गए लोगों की, कोई पूजा नहीं करता
बस एक इशारे से ही, हर जालिम इंसान बन जाता
अगर तीसरी आंख, उस जालिम के दिल में भी होती
किसी को देखकर, जब दर्द किसी के होठों पे आ जाए
समझ लेना की ऐसा ही, कभी दिन उसने भी देखा है
अजंता है ऐलोरा है, कहीं भी है जो तस्वीरें दीवारों पर
हरेक घर में ये तस्वीरें, रात को अंधेरे कमरे में बनती है
जिसे कभी सड़कों पे देखकर, शर्म से नजरें चुराते हो
कभी बिस्तर की सलवटों से पूछो, कहां जाकर वो मुंह छुपाए
बहुत अफसोस होता है, किसी को जीते जी मरता देखकर
लेकिन क्या फायदा इससे, जब मरते को न बचा पाऐ

 

 





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