मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

जुमला निकला है...


बीते दिनों में मैखाने से मजमा निकला है
सुर तो अब तक छेड़ी न थी नगमा निकला है।
शुक्र है की बातें कोई बेवजह नहीं होती
सब बातों का कोई-न-कोई मतलब निकला है।
अगला कौन है, पिछला कौन है, कौन साथ खड़ा है
पहचानने को इनको अब एक चश्मा निकला है।
शाम सुरमयी, रात फरेबी, दिन बोझिल निकला है
क्यूं जाने मौसम आज फिर कुछ बहका निकला है।
हो-हल्ला है, है शोर-शराबा, ची-ची, चूं-चूं है
हर एक शख्स के मुंह से कैसा फतवा निकला है।
इसको मारो, उसको काटो, ये सबका है सबमें बांटो
दिन आज का फिर से ऐसा क्यूं बिफरा निकला है।
सर पे टोपी, हाथ में तख्ती, दूसरे हाथ में तिरंगा है
इन्हें लेकर साथ सड़कों पर क्यूं इंसा निकला है।
महंगाई है, भ्रष्टाचार है, भूखमरी और बेरोजगारी है
इन सब बातों से मिलता कुछ मसला उछला है।
सड़कों पर क्यूं जिंदा लाश बिलखता निकला है
क्या कमी हो गई देश में कि ऐसा जुमला निकला है।








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