मंगलवार, 9 जुलाई 2013

किस दवाब में डूब रही है अर्थव्यवस्था ?

भारत की सरकार आर्थिक विकास नीति की सफलता पर अपने पीठ थपथपाने से पीछे नहीं रहती चाहें देश में हालात कैसे भी हो। देश की बड़ी जनसंख्या एक वक्त के भोजन के लिए तरस रही है तो दूसरी तरफ ऐसे भी लोग हैं जिनको दोनों वक्त का भोजन नहीं मिल पा रहा। शिक्षा का अभाव, स्वास्थ्य की अव्यवस्था, बेरोजगारी, गरीबी जैसी कई समस्याओं से निपटने के लिए सरकार रोज नई योजनाओं को संसद के पटल से देश के नागरिकों तक पहुंचाने की कोशिश करती देखी जा सकती है। लेकिन देश के हालात में परिवर्तन न के बराबर इसका एक ही कारण है योजनाओं को बना देने, लागू कर देने के बाद भी उसका पालन सही तरीके से नहीं हो पाना। देश की सरकार को जनता नहीं कार्पोरेटर चलाते हैं, यहां लोकतंत्र नहीं कार्पोतंत्र है अगर भरोसा न हो तो 2जी, 3 जी, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसे मामले आपको इस पर भरोसा दिला सकते हैं। जहां जनता की चिंता सरकार को बिल्कुल नहीं थी चिंता थी तो केवल कार्पोरेट घराने की यह केवल वर्तमान सरकार की बात नहीं है देश में आज तक जितनी सरकारें बनी सब जनता के द्वारा चुने गए और कार्पोरेटरों के इशारे पर चलते रहे। सभी सरकारी नीतियां हमें उत्पादों का आदी बनाने के लिए बनाई जाती हैं। हम आज जिन विदेशी उत्पादों का इस्तेमाल कर रहे हैं या उसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं उस पर देश की संसद और सरकार कुछ वर्षों पहले ही अपनी मुहर लगा चुकी होती है और फिर कंपनी को अपने उत्पादों के साथ बाजार में उतरने की सलाह दी जाती है ताकि लोग धीरे-धीरे इसके आदी बनें इनमें से अधिकतर विदेशी उत्पाद होते हैं। जो सनै-सनै देसी उत्पादों से आपको दूर करते चले जाते हैं और देसी कंपनियां नुकसान में चलने लगती है उधर विदेशी कंपनियों द्वारा अपने मुनाफे का बड़ा हिस्सा सरकार को, अपने प्रचार प्रसार के लिए और अपनी लॉबिंग के उपर खर्च करना पड़ता है। जिसके लिए वो जनता के ऊपर मूल्य वृद्धि कर दवाब बनाते हैं और नतीजा महंगाई जो आज देश को दीमक की तरह चाट कर खोखला करता चला जा रहा है। अभी देश में बढ़ती महंगाई को कम करने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए प्रयासरत संप्रग सरकार अपने तमाम प्रयासों के बावजूद देशी-विदेशी निवेशकों का भरोसा जीत पाने में विफल रही है, जिसका नतीजा डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत कम होना है। विदेशी निवेशक जहां भारत में निवेश करने के प्रति उत्साहित नहीं दिखते हैं वहीं देसी निवेशकों को भी सुरक्षा के दृष्टिकोण से भारत से ज्यादा विदेश में निवेश करने का फायदा नजर आ रहा है। इस कारण आज देश से देसी उत्पादों का निर्यात लगातार घट रहा है वहीं आयात का बोझ देश पर बढ़ता जा रहा है, जिसका प्रभाव बढ़ते व्यापार घाटे के रूप में हमारे सामने है। अपनी गलत आर्थिक और राजनीतिक नीतियों की वजह से संप्रग सरकार आज खुद तो फंसी ही है देश की तमाम जनता को भी उसने महंगाई के भंवर जाल में उलझा दिया है। रुपए की कीमत दिनोंदिन गिरती चली जा रही है। विदेशी मुद्रा भंडार में हमारे पास बस इतनी मुद्रा बची है जिससे हम सात माह तक ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर पाने में सक्षम हैं।
ऐसी स्थिति में सरकार के अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए जो तरीका बचा है  वह यह कि वह विदेशी निवेशकों को किसी तरह भरोसा दिलाए कि सरकार आर्थिक सुधार के काम को छोड़ेगी नहीं और इस दिशा में वह तेजी से काम करेगी। आनेवाले आम चुनावों को देखते हुए निवेशक वर्तमान सरकार पर बहुत भरोसा नहीं दिखा पा रहे हैं और उन्हें केंद्र में बनने वाली अगली सरकार का इंतजार है। देश की हिलती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए सरकार को कड़े और नीतिगत फैसले लेने होंगे लेकिन सामने चुनाव हो तो ऐसी संभावना कम होती है। सरकार आर्थिक अनिश्चितता के इस माहौल में निवेशकों को भरोसा दिलाना चाहती है, इसके लिए सरकार कुछ क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाना चाहती है। इसके लिए सरकार ने फिलहाल टेलीकॉम में शत-प्रतिशत एफडीआइ को मंजूरी देने का निर्णय भी लिया है। वहीं देसी उद्योगपतियों के हित में गैस, कोयला आदि के दामों में वृद्धि करने का निर्णय भी लिया गया है।
देश की सरकार अमेरिकी दबाव में ईरान से तेल का आयात घटा रही है और गैस व कोयले पर निर्भरता बढ़ा रही है। ऐसे में गैस और कोयले के बढ़े दाम से कुछ निजी उद्योगपतियों को तो लाभ होगा, जबकि दूसरे उद्योगों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा और देश के राजकोष पर इससे दबाव बढ़ेगा। जिसका विपरीत असर महंगाई के रूप में सामने आएगा। यही नहीं घरेलू मांग घटेगी तथा निर्यात प्रभावित होगा। बेहतर यही होगा कि ऊर्जा कीमतों में वृद्धि का फैसला सरकार खुद करने के बजाय किसी स्वतंत्र एजेंसी को सौंप दे ताकि किसी दबाव में आकर देश के लिए अहितकर निर्णय नहीं लिया जाए। अभी ऐसा लगता है कि सरकार उद्योगपतियों के आगे झुक गई है और वह देश के आगे के हितों के लिए सही निर्णय ले पाने में अक्षम है। सरकार को चाहिए कि वह ऐसे निर्णय ले, जिससे आम आदमी पर महंगाई का बोझ कम पड़े और व्यापार असंतुलन के साथ राजकोषीय दबाव भा समाप्त हो। इसके लिए तत्काल काम करने की आवश्यकता है अन्यथा सरकार न तो अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकेगी और न ही अपनी चुनावी नैया पार लगा सकेगी।

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