मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

अर्थहीन फैसला है जमीन जिसकी खनिज उसका

 गंगेश कुमार ठाकुर

 

विस्थापन देश के विकास का परिचायक है या नहीं ये तो नहीं पता पर अपनी राजनीति चमकाने और ढेरों रुपया बटोरने का जरिया जरूर है। खनन के नाम पर लोगों से जमीन लो और फिर जमीन के मालिकाना हक से भी उन्हें बेदखल कर दो। सरकार की इन्हीं नीतियों के चलते आज कई ऐसे राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है जो खनिज के मामले में शायद देश के सबसे समृद्ध राज्य हैं। जहां जमीन के नीचे प्रकृति प्रदत्त अकूत खनिज संपदा छुपी है। लेकिन जो जमीन का मालिक है वह इस खनिज का मालिक नहीं है। सरकार की नीतियों के चलते ऐसे भूस्वामियों की रातों की नींद और दिन का चैन खो गया है। मैं भारखंड का रहनेवाला हूं और जानता हूं कि प्रकृति ने अपने इस खनिज रूपी अनुपम उपहार को बांटने के समय इस राज्य के साथ कोई भेदभाव नहीं किया था। बल्कि उसे हक से ज्यादा संपदा अपने हाथों उपहार में प्रकृति ने दे डाला था। उच्चतम न्यायालय के अलग-अलग फैसले की माने तो भारते के मूल निवासी आदिवासी हैं और अपने दूसरे हाल में दिए फैसले में न्यायलय ने कहा कि जो भूस्वामी होगा वही जमीन के नीचे दबे खनिज का भी स्वामी होगा। दोनों ही फैसले जनता के हक में थे। लेकिन फैसले को दरकिनार कर सरकार ने भूस्वामियों को जमीन से बेदखल करने उन्हें नौकरी और पैसे का लालच देकर उनके संपदा का दोहन करने, उन्हें विस्थापित करने का जो काम शुरू किया वह निश्चित तौर पर सरकार की उस मंशा का परिचायक है जिसमें लोकतंत्र में जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन की बात केवल मिथ्या ही लगती है। विकास के नाम पर देश के इन मूलनिवासियों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया जा रहा है वह शायद सरकार करेगी इसकी उम्मीद कतई नहीं थी। झारखंड में एक जिला है गोड्डा जिसके अंतर्गत पड़ता है सरकार की कोल माईन्स परियोजना राजमहल प्रोजक्ट(ईस्टर्न कोल फिल्ड लि.) परियोजना का विस्तार इसी जिले के ललमटिया से हुआ है। जिले से राजमहल तक पहाडियां ही पहाडियां हैं और इनके नीचे और सपाट समतल जमीन के नीचे भी भरा पड़ा है कोयले का अकूत भंडार। सरकार ने कनाडा सरकार के सहयोग से यहां सर्वप्रथम खनन परियोजना की शुरुआत की लेकिन कनाडा सरकार के करार की समय सीमा समाप्त होने पर सरकार ने परियोजना के संचालन की जिम्मेदारी अपने हाथ में ले ली। आज तक सरकार स्वयं इस परियोजना का संचालन कर रही है परियोजना के संचालन के लिए समय-समय पर सरकार कई बड़े पूंजीपतियों के हाथ में इसका अलग-अलग काम सौंपती रहती है और उसका पूरा फायदा सरकार और पूंजीपति दोनों मिलकर उठाते हैं। सरकार को जनता की परेशानी से असुविधा से कोई मतलब नहीं है हां पूंजीपतियों की सुविधा और असुविधा का पूरा ख्याल सरकार जरूर रखती है। ललमटिया में जहां इस परियोजना का शुभारंभ किया गया था वहां कुछ आदिवासियों के गांव थे तो कुछ निचली जाति के लोगों के। लोगों को नौकरी और पैसे का लालच देकर पहले तो जमीन से विस्थापित किया गया और फिर धीरे-धीरे सरकार ने अन्य लोगों को भी विस्थापित करने और परियोजना का और विस्तार करने की ओर कदम बढ़ाया। भोली-भाली जनता को अंधेरे में रखकर उनकी जमीन पर अधिकार किया गया और फिर सुविधाओं का लालच देकर उनका विस्थापन किया गया। आज भी वहां यही क्रम जारी है पर न्यायलय के फैसले के बाद भी सरकार की नीतियों में बदलाव नहीं आया है। लोगों को सरकार यह तक बताने से कतराती है कि उनका मूल अधिकार क्या है। जहां सरकार का बस नहीं चलता वहां जबरन विस्थापन और अधिग्रहण का फार्मूला जरूर अमल में लाया जाता है। समय-समय पर सरकार स्थानीय गुंडों का इस्तेमाल भी विस्थापन के लिए करती है ऐसे में जमीन जिसकी खनिज उसका जैसे न्यायालय के फैसले का क्या हश्र हो रहा होगा यह स्वतः समझा जा सकता है। सरकार की इन्हीं नीतियों के विरोध में समय-समय पर यहां सरकार विरोधी आवाजें उठती हैं लेकिन उसे बल प्रयोग द्वारा दबा दिया जाता है। ऐसे में इन विस्थापित लोगों को सरकार विकास की धारा में शामिल तो नहीं कर रही है लेकिन, उनके द्वारा विकसित सामाजिक व्यवस्था से पचासों साल पीछे जरूर धकेल रही है ताकि विरोध के लिए फिर उन्हें पचास साल का लंबा सफर तय करना पड़े। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल गुरुवार (24-10-2013) को "ब्लॉग प्रसारण : अंक 155" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

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