गुरुवार, 28 नवंबर 2013

योग्यता नहीं परिवार से सीखकर चलता है भारतीय लोकतंत्र

पंद्रहवें लोकसभा चुनावों के बाद एक नारा चारो तरफ़ सुनाई देने लगा था। लगभग हर राजनीतिक दल यह कहने लगे थे कि अब युवा भारत का समय है और राजनीती में युवाओं को लाया जाना चाहिए और लाया जाएग। उस बार का लोकसभा चुनाव संम्पन्न हो गया और अच्छी संख्या में युवा संसद चुनकर संसद तक आ पहुंचे। इसके बाद शुरु हुआ दौर हर पार्टी द्वारा युवाओं को आगे लाने का। लेकिन जब ये युवा ब्रिगेड राजनीति के अखाडे से निकलकर जनता के सामने आई तो लगा यह युवा राजनीति नहीं ये तो राजतंत्र की वंशवाद परंपरा का लोकतांत्रिक रूप है। जब हमने युवा लोकतंत्र को ध्यान से देखा तो लगने लगा मानो वास्तविक लोकतंत्र परिवार की परंपरा को आगे चलाने का ही दूसरा नाम है। राहुल गाँधी , अखिलेश यादव, धर्मेन्द्र यादव, प्रिया दत्त, सचिन पायलट, जीतेंद्र प्रसाद ऐसे ही कई नाम इस फेहरिस्त में है जो राजनीति में सत्ता को नहीं अपने पूर्वजों की विरासत को संभालने आए हैं।
दरअसल यहां प्रश्न इनकी योग्यता या अयोग्यता का न होकर इनको राजनीति में तबज्जो और मौका दिए जाने को लेकर है। सवाल यहां लोकतंत्र के उस महान उद्देश्य का है जो शासन में जनता की अधिक से अधिक सहभागिता चाहता है। नेहरू-गांधी परिवार ने तो ये मान लिया है कि कांग्रेस की संपूर्ण सत्ता को इन्हीं का परिवार संभाल सकता है। कांग्रेस के बाकी नेता अब इस परिवार के मंत्री बन गए हैं ,जिनका अलग होना उनके अपने अस्तित्व को मिटा लेना या संकट की स्थिति में डाल लेना है। कमोवेश यह बात लगभग हर पार्टी में है, चाहे वह राष्ट्रीय स्तर की पार्टी हो या क्षेत्रीय स्तर की। राजनीति में इस तरह का परिवारवाद ये सामान्य मुद्दा नहीं बल्कि गहन सोच का विषय है कि आखिर जिस राजशाही, परिवारवाद और सामंतवाद से लड़कर हमने लोकतंत्र को स्थापित किया है वो  इस तरह से एक सफल लोकतंत्र बन पाएगा फिर लोकतंत्र और राजतंत्र के बीच अंतर क्या रह जाएगा। बस भोली-भाली जनता के मतदान का अंतर ही तो होगा राजतंत्र और लोकतंत्र के बीच। वो भी ऐसा मतदान जिसमें जीतने वाला कोई भी राजा किसी न किसी परिवार से संबंध रखता हो। आमजन के लिए लोकतंत्र में केवल वोट देने का ही काम नहीं है , बल्कि उनमें योग्य व्यक्तियों को आगे आकर जनता का प्रतिनिधित्व करने की भी क्षमता है लेकिन उस क्षमता का महत्व इस लोकतंत्र की परिवारवादी व्यवस्था में मिलकर समाप्त हो जाता है। ऐसे में लोकतंत्र को परिवारवाद की राजनीति के सहारे उसी तरह जिंदा रखा गया है जैसे वेंटिलेसन पर किसी मनुष्य को जिंदा रखा जाता है। डॉक्टर अपने बेटे को डॉक्टर बना दे, इंजीनियर अपने बेटे को इंजीनियर बना दे  या अध्यापक का बेटा अध्यापक बन जाये तो इससे किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी ना ही किसी को सार्वजनिक रूप से इससे नुकसान होगा। लेकिन अगर किसी राजनीतिक नेता का बेटा या बेटी राजनीति में आ जाए तो सबको आपत्ति होगी क्योंकि देश में राजनीति एक व्यवसाय का रूप ले चुकी है जिस व्यवसाय के लिए योग्यता नहीं परिवार द्वार सिखाया गया राजनीति का पाठ जरूरी है। पूरे विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास में भारत एक ऐसा देश है, जहां राजनीति में परिवारवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। यहां एक ही परिवार के कई व्यक्ति लंबे समय से प्रधानमंत्री और केन्द्रीय राजनीति की धुरी रहे हैं। आजादी के तुरंत बाद शुरू हुई वंशवाद की यह अलोकतांत्रिक परंपरा अब काफी मजबूत रुप ले चुकी है। राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ राज्य और स्थानीय स्तर पर इसकी जड़ें इतनी जम चुकी है कि देश का प्रजातंत्र परिवारतंत्र नजर आता है। इस परिवारतंत्र को कितना लोकतांत्रिक कहा जा सकता है, यह सवाल दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।
जवाहरलाल नेहरू से होते हुए इंदिरा गाँधी, संजय गांधी, राजीव गांधी, मेनका गांधी, सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी, राहुल गांधी, वरुण गांधी जिस तरह से पारिवारिक सत्ता का फायदा लेते आए हैं और देश की राजनीति में अपनी खासी ठसक रखते हैं वो देश क्या विदेशों में भी किसी से छूपी नहीं है। महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार का भी हाल राजनीति में कुछ ऐसा हा रहा है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायमसिंह के परिवार के लगभग बीस छोटे बड़े सदस्य केन्द्र या उत्तर प्रदेश की कुर्सियों पर विराजमान हैं। पंजाब में अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल के एक दर्जन पारिवारिक लोग कुर्सियों पर काबिज हैं। हरियाणा में स्वर्गीय देवीलाल के पुत्र चौटाला जी और उनके बेटे राजनीति में हैं। कश्मीर में स्व. शेख अब्दुला के बाद उनके बेटे फारूख अब्दुला और उनके भी बेटे उमर अब्दुला क्रमश: केन्द्र व राज्य में काबिज है। कश्मीर में ही विरोधी नेता महबूबा मुफ्ती अपने पिता भूतपूर्व केन्द्रीय गृह मन्त्री की विरासत की मालकिन हैं। हिमांचल के भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान मुख्यमंत्री के पुत्र अनुराग ठाकुर राष्ट्रीय युवा मोर्चा संभाल रहे हैं। हरियाणा के दो भूतपूर्व बड़े नेता चौधरी बंशीलाल व भजनलाल के वंशज राजनीति में सक्रिय हैं। बिहार के राजद के बड़े नेता लालू प्रसाद ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को चूल्हे से सीधे मुख्यमन्त्री बनाया था। उनके दो साले भी राजनीति मे अग्रणीय हैं। स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री जी के पुत्र, गोविन्दवल्लभ पन्त के पुत्र-पौत्र, मध्यप्रदेश के शुक्ला बन्धु अपने पिता की विरासत को लंबे समय तक संभालते रहे। उत्तराखंड के वर्तमान मुख्यमन्त्री अपने पिता हेमवतीनंदन की लीक पर हैं, उनकी बहन भी उत्तरप्रदेश में कॉग्रेस की कमान सम्हाले हुई हैं। चौधरी चरणसिंह के पुत्र एवं पौत्र उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं। वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, बाबू जगजीवनराम की बेटी हैं। हारे हुए राष्ट्रपति उम्मीदवार संगमा लोकसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं। बेटे को आसाम मे राज्य विधान सभा में और बेटी को लोकसभा में स्थान दिला कर आगे की राह तक रहे हैं। मध्यप्रदेश के राज घराने वाले सिंधिया परिवार की पीढ़ियां राजनीति की अग्रिम पंक्ति में सक्रिय हैं। दक्षिण में तमिलनाडू में करुनानिधि पुत्र एवं पुत्री, भतीजे व अन्य रिश्तेदारों के साथ राजनीति का सुख ले रहे हैं। केरल में स्वर्गीय करुणाकरण ने पुत्र मोह में बहुत खेल किया, और पार्टी से विद्रोह किया। कर्नाटक में स्वनामधन्य हरदनहल्ली देवेगौड़ा के बेटे का मुख्यमंत्री बनना और हटाया जाना ज्यादा पुराना मामला नहीं है। आन्ध्र में फिल्मों से आये राजनेता/मुख्यमन्त्री एन टी रामा राव की विरासत में पत्नी लक्ष्मी और दामाद चंद्रबाबू नायडू के राजकाज की बातें अब भी लोगों को याद हैं। आंध्र में ही पूर्व मुख्यमन्त्री राजशेखर रेड्डी के पुत्र जगन के हक की लड़ाई केवल कुर्सियों के लिए चली है। झारखंड में शिबूसोरेन का व उनके बेटे का राजनीतिक दांवपेंच सिर्फ कुर्सी के लिए चलता रहा है। एनसीपी नेता शरद पवार की बेटी राज्यसभा में और भतीजा विधान सभा में उनके आदर्शों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। महिला आयोग की वर्तमान अध्यक्षा ममता शर्मा के ससुर लंबे समय तक राजस्थान में कई विभागों के मन्त्री रहे चुके हैं। राजस्थान के वर्तमान गृहमंत्री शांति धारीवाल के पिता भी अपने समय के बड़े नेता थे। इस प्रकार के कई राजनीतिकों के बेटे, भतीजे और भाई अपने बाप या दादा की वसीयत को सम्हाले हुए हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, हरीश रावत, यशपाल आर्य, भूपेंद्रसिंह हुड्डा, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री कल्याणसिंह, इन सबके बेटे भी इसी राह पर हैं।
भारतीय राजनीति में अगर परिवारवाद का विरोध करने वाले कोई राजनेता थे, तो वो थे राम मनोहर लोहिया। लोहिया का मानना था की राजनीति में वंशवाद नहीं होना चाहिए जिसमें नेतृत्व की क्षमता हो वो आगे बढ कर राजनीति को थाम ले साथ ही जनता के हित में काम करे ना की अपने और अपने परिवार के लिए। भारत में लोकतंत्र के बदलते इस मिजाज़ को लोग भले ही हलके तौर पर ले रहे हों या इसके दुष्परिणामों की तरफ निगाह ना डाल रहे हों , पर यकीनन ये ऐसा खतरा है जो लोकतंत्र की पुख्ता इमारत को विषैला बना देगा , क्योंकि परिवार-वाद का कहर बड़ी तेज़ी से इसमें ज़हर बो रहा है ! वंशवाद अगर इसी तरह भारतीय राजनीति में अपनी जड़े जमाता रहा तो आम आदमी का राजनीति में प्रवेश करने का सपना सपना बनकर रह जायेगा।

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