रविवार, 12 दिसंबर 2010

फोन टेपिंग मामले में नीरा राडिया और कई पत्रकारों का नाम आने से हडकंप मच गया है । भ्रष्ट पत्रकारों ने पत्रकारिता को बदनाम किया है, क्या मीडिया की छवि ध

नीरा राडिया फोन टेपिंग मामले ने तब तुल पकड़ लिया जब नवंबर 2010 में ओपन और आउटलुक में टेप की गयी बातचीत का प्रकाशन हुआ।बात यहीं खत्म नहीं हुई इसके बाद तो मीडिया ने इस खबर को तरजीह देनी शुरु कर दी।प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोनो माध्यमों ने इस खबर को आम जनता तक आग की तरह फैला दिया।ऐसे में उनलोगों का तिलमिला उठना वाजिब हीं था ।

नीरा राडिया के साथ फोन पर बातचीत में केवल राजनीति के दावपेंच खेलने वाले नेता हीं नहीं थे,और न हीं केवल औधोगिक घराने की बडी-बडी हस्तियाँ, बल्कि चौकाने वाली बात तो यह रही कि इसमें जनता के वो नुमाइंदे भी थे जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रुप में पहचान रखने वाली पत्रकारिता के व्यवसाय से जुडे़ थे। जिस पर जनता का भरोसा हमेशा कायम रहा है।

राजनीतिक और उधोगपतियों के बीच गहरा संबंध तो भारत की परंपरा का हिस्सा रहा है । क्योंकि यहाँ दोनों एक-दूसरे के बिना अधुरे हैं । लेकिन यहाँ राजनेताओं और उधोगपतियों के कारनामों का पर्दाफाश करने में मीडिया अपनी अहम भुमिका निभाती रही है। ऐसे में नीरा राडिया फोन टेपिंग मामले में मीडिया की कुछ बड़ी हस्तियों के शामिल होने से ऐसा लगने लगा कि लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ धाराशायी हो गया हो । इन हस्तियों के चेहरे से जनता का नुमाइंदा होने का भ्रम भी मीडिया के हीं दूसरे पत्रकारों ने उतार दिया ।

ये मीडिया में काम करने वाले ऐसे पत्रकार थे जिनके नाम को करीब करीब हर लोग जानते थे।इन पत्रकारों के नाम की वजह से इनके न्यूज चैनलों या अखबारों को जनता के बीच विशेष पहचान मिली हुई है।इस फोन टेपिंग ने मीडिया के कुछ ऐसे राज खोल दिये जिससे जनता को यह समझ में आ गया की इन पत्रकारों का मीडिया में रहकर भी काम क्या है। जिसके कारण

कई पत्रकारों में हडकंप मच गया । बाकी के पत्रकार अपने आप को जनता की नजरों में गिरने से बचाने की मशक्कत करने लगे।

फोन टेपिंग में फंसे ये पत्रकार दोषी हैं या नहीं यह फैसला आने में तो वक्त लगेगा। लेकिन बाकी के पत्रकारों को भी अपने आप को जनता के सामने अपनी निष्पक्ष छवि सिद्ध करने की जरुरत महसुस होने लगी है।इससे मीडिया की छवि तो धूमिल हुई हीं है।आम आदमी की नजर में लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ वैसा हीं गंदा हो गया है, जैसा की लोकतंत्र के तीन अन्य स्तंभ गंदे हो चूके हैं।पत्रकारों के इस कारगुजारी से अब सामने आकर बोलने वालों की तादाद बढ गयी है।पहले जो लोग मीडिया की बुराई दबी जुबान में करते थे, वही अब खुलकर मीडिया की बुराईयाँ गिनाने लगे हैं।

लेकिन भारतीय मीडिया में या पत्रकारों में अभी सहिष्णुता समाप्त नहीं हुई है। भारत में भी मीडिया के क्षेत्र में पूँजीपतियों द्वारा पूँजी का विलय करने से इसके दिशा में थोडा सा भटकाव जरुर आया है। देश की जनता के बीच मिशन बनकर उभरी मीडिया अब कमीशन का अड्डा बन गयी है। इस व्यवस्था को पैदा करना के जिम्मेवार वे राजनेता हैं जो इन पूँजीपतियों की पीठ थपथपाकर भारत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों को दीमक की तरह चाट रहे हैं।मीडिया में इन पूँजीपतियों का हाथ होने के चलते दोनों बचते रहे हैं।कुछ पत्रकारों की इस गंदे खेल में शामिल होने से भारतीय मीडिया की छवि धुमिल हुई है कहना अनुचित होगा।

क्योंकि अगर इन दो चार पत्रकारों की वजह से भारतीय पत्रकारिता का यह सागर गंदा हो जायेगा तो यह सोचना बड़ी भुल होगी। भारतीय मीडिया का क्षेत्र इतना विशाल है इसकी सीमा इतनी विस्तृत है की यह अथाह सागर में तब्दील हो चुका है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से आज तक भारतीय पत्रकारिता कई उतार-चढ़ावों के दौर से गुजरा है। इसमें कई तरह के तकनिकी और व्यवहारिक परिवर्त्तन हुए हैं। लेकिन भारतीय पत्रकारिता हर दौर में मिशन थी, मिशन है, मिशन बनी रहेगी।

आज भी इतना कुछ हो जाने के बाद भी भारतीय पत्रकार पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों को बचाने में कामयाब रहे हैं।भलें हीं इन पत्रकारों के पास अपनी नैतिकता बेचने वाले पत्रकारों के तरह का पैसा न हो नाम न हो। लेकिन इनके अन्दर का पत्रकार अभी भी जिन्दा है। जो सामाजिक मुल्यों की समझ, समाज को दिशा-निर्देश प्रदान करने की क्षमता, जनचेतना, जनजागृति पैदा करने का हूनर रखते हैं।ये आज के इन पत्रकारों के बचे हुए नैतिक मूल्यों का हीं उदाहरण है कि नीरा राडिया,ए राजा,अशोक चव्हाण,सुरेश कलमाडी,कनिमौली,रतन टाटा सरीखे लोगों का पर्दाफाश हुआ है।ये इन बेखौफ कलमों का ही कमाल है कि जनता इनकी सच्चाई जान पाती है। इन पत्रकारों ने पत्रकारिता को मिशन बनाने के लिए जो स्याही भरी है उस पर कमीशन का रंग नहीं चढ़ने दिया है।

अलग बात है पत्रकारिता आज व्यवसाय बन चुका है, लेकिन कम हीं पत्रकार ऐसे हैं जो अपनी कलम की इस ताकत को बेचते हैं।हाँ,समय ने पत्रकारिता की संरचना में थोड़ा सा बदलाव लाया है। जो पत्रकार ऐसे कारनामे कर रहे हैं वो न तो आज पत्रकार हैं न वो कल पत्रकार थे। वो शुरु से हीं पूँजीपतियों के सह पर पलने वाले कलम के वो जादुगर हैं जो कलम का इस्तेमाल अपनी पूँजी बनाने या पूँजीपतियों की पूँजी बढ़ाने के लिए करतें हैं। भारतीय पत्रकारिता न तो ऐसे पत्रकारों के बल पर चलती है, न हीं इससे भारतीय पत्रकारिता की छवि धूमिल होने वाली है। हाँ, भारतीय जनता जरुर ऐसे पत्रकारों और उनकी पत्रकारिता से जरुर मुँह फेरने लगी है।

---------------------------------------------------------(गंगेश कुमार ठाकुर)

व्यूज आँन न्यूज

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