ऐसा देश है मेरा के माध्यम से मैं आप तमाम पाठक से जुड़ने की भरपुर कोशिश कर रहा हूँ चूँकि मैं इस जगत में आपका नया साथी हूँ इसलिए आशा करता हूँ कलम के जरिये उभरे मेरे भावना के पुष्पों को जो मैं आपके हवाले करता हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया के उपहार मुझे उपहार स्वरूप जरूर वापस करेंगे ताकि मैं आपके लिए कुछ बेहतर लिख सकूँ। ..................................आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में ...........................................आपका दोस्त """गंगेश"""
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
शायद हम रूलाते हैं इनको
हवा की सरसराहट की आवाज़ भी कितनी अजीब है ना, जरा सोचिए तो इस आवाज़ में आप क्या-क्या महसूस कर सकते हैं, कभी अंधेरे में सुनाई दे जाए ये आवाज़ तो ड़र सा महसूस होने लगता है, कभी शांत मन से आप बैठें हों तो यही सरसराहट दिल को सुकून देने लगती है और न जाने इसी तरह आपके अलग-अलग क्षणों में आपके अंदर कितने हीं विचारों और संवेदनाओं को जन्म दे जाती है ये सरसराहट। लेकिन, कभी आपने सोचा है, ये सरसराहटें जहाँ से पैदा होती हैं जहाँ से बनकर,छनकर हमारे पास तक आती हैं, उसमें कितनी कथाऐं, कितनी खुशी, कितनी वेदना, कितना सूनापन, कितना यर्थाथ, कितनी शक्ति और न जाने कितना कुछ होगा, उस पौधे का जिसने अपनी पत्तियों को हवा के साथ लड़ाकर, रगड़कर हमारे लिए ये स्वर पैदा किये हैं ।
पेड़ की पत्तियाँ हरी हो या सूखी सरसराहट की आवाज दोनो से आती है, जब हवा उनके बीच से गुजरती है , हवा कभी इन पत्तियों के बीच अंतर पैदा कर देती है, तो कभी पेड़ की साखों से हीं इसे अलग कर देती हैं इन आवाज़ों को हमारे लिए पैदा करने वाली ये पत्तियां सचमुच कितनी मुसीबतों को झेलकर भी अपने अंदर से वो स्वर पैदा कर जाती हैं जो हमारे तन-मन, आत्मा को पुलकित कर देती हैं, लेकिन हम उन सरसराहटों में कभी भी उन पत्तियों की वेदना को महसूस नहीं करते।
कितने मतलबी हैं हम इंसान। उन हरे पत्तों में उन सूखे पत्तों से बिछुड़ने का दर्द होता है तो दूसरी ओर उन सूखे पत्तों को अपनी हरियाली खोने और पेड़ की साखों से शीघ्र दूर जाने का ग़म और इसी में ये दोनों हीं तरह की पत्तियों की जाति हवा के साथ झुलते ,गले मिलते, विरह के गीत गाते , रोते ,सिसकते और न जाने क्या –क्या करते रहते हैं और इन्हीं दर्दों को बीच से उभरकर आती है इंसान के लिए सर-सर-सर-सर......... हवा की सरसराहट की वो मनोरम आवाज़ ।
इंसान सचमुच कितना मतलबी है न अगर उसे थोड़ी सी भी चोट आ जाऐ तो वह अपनी वेदना को अपनी पीड़ा को इतनी तेज आवाज में व्यक्त करने लगता है कि अगल-बगल का पूरा परिवेश हीं शोकाकुल हो जाता है । गहरे सन्नाटे के मध्य हल्की सी सिसकी भी पता दे जाती है कि कोई इंसान शोकग्रस्त है, रो रहा है, लेकिन तेज सरसराहट के साथ भी व्यक्त की गई पत्तियों की इन आहटों को, दु:खों को वही इंसान नहीं समझ पाते या समझना हीं नहीं चाहता । कारण भी है कि इंसान अपने स्वार्थ के हाथों मजबुर है, वह जब इन पेड़ों के टूटते फल से होने वाले पेड़ों के दु:ख और दर्द से विचलित या विह्वलित नहीं होता तो फिर पत्तियों की तो विसात हीं क्या है और जिन पौधों की पत्तियाँ काम में आ सकती है उनकी पत्तियों को भी हम इंसान बेदर्दी के साथ साखों से अलग करते रहते हैं, ये इंसान सचमुच में उसी जाति में से हैं जिन्हें ईश्वर ने सबसे समझदार बनाया है।
काश कोई इन पौधों और पत्तियों की वो भाषा, वो वेदना, वो सूनापन समझ पाता महसूस कर पाता तो सचमुच आज पौधे भी हँसते होते, गुनगुनाते होते लेकिन हाये, ऐसा शायद तब तक न होगा जब तक हम मानव स्वार्थी रहेंगे, अपने समझदार होने का दंभ भरना छोड़कर जब तक हम इन हरी पत्तियों और पौधों के बारे में सोचना शुरू नहीं कर देंगे, इनसे प्यार नहीं करने लगेंगे और जब तक इन पौधों और पत्तियों से बातें करने की आदत नहीं डालेंगे ...............................................
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aaaaaaaaaahhhhhhhhhhhhhhhhhh
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
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