ऐसा देश है मेरा के माध्यम से मैं आप तमाम पाठक से जुड़ने की भरपुर कोशिश कर रहा हूँ चूँकि मैं इस जगत में आपका नया साथी हूँ इसलिए आशा करता हूँ कलम के जरिये उभरे मेरे भावना के पुष्पों को जो मैं आपके हवाले करता हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया के उपहार मुझे उपहार स्वरूप जरूर वापस करेंगे ताकि मैं आपके लिए कुछ बेहतर लिख सकूँ। ..................................आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में ...........................................आपका दोस्त """गंगेश"""
मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012
तेरे और मेरे दरम्यां
तेरे और मेरे मकान के बीच
जो दीवार खड़ी है
उसे देखता हूं तो लगता है
मेरे और तेरे दरम्यां
बस चंद कदमों का फासला है
लेकिन जब घुमावदार गलियों से
होकर तुम्हारे घर तक पहुंचता हूं
लगता है फासले में इजाफा हुआ है
आज भी हम और तुम उतनी ही दूर हैं
जितना पहले हुआ करते थे
उन गलियों के मोड़ पर
आज भी आदत से मजबूर
तुम्हारा इंतजार करता रहता हूं
तुम उन गलियों की
उलझन में उलझकर, बेबस होकर
मेरे पास वैसे ही नहीं पहुंच पाती हो
जैसे मैं तेरी जुल्फों के उलझे
जाल से आज तक
आज़ाद नहीं हो पाया हूं
रात घिरते ही चला आया हूं
वापिस अपनी छत पर
सोचने लगा हूं क्या हमें और तुम्हें
उलझाने और बेवस करने के लिए
ये गलियां और तेरी जुल्फों का
जाल बिछाया गया है
अचानक तेरे छत वाले कमरे में
रौशनी के मध्य
तुम्हारा अक्स लहराता दिखाई पड़ता है
धप्प की आवाज के साथ
खोल देती हो तुम खिड़की
बेवसी और मजबूरी का
नाममात्र का भी ख्याल नहीं है
अब तुम्हारी आंखों में
उन आंखों में झांककर
मैं भी भूल जाता हूं
वो दिन भर की थकन
वो गली के नुक्कड़ पे
तेरे इंतजार में बिताए पल
अब तो लगने लगा है
कि बस चन्द ही दूरी का फासला
तो है तेरे और मेरे दरम्यां ।
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