ऐसा देश है मेरा के माध्यम से मैं आप तमाम पाठक से जुड़ने की भरपुर कोशिश कर रहा हूँ चूँकि मैं इस जगत में आपका नया साथी हूँ इसलिए आशा करता हूँ कलम के जरिये उभरे मेरे भावना के पुष्पों को जो मैं आपके हवाले करता हूँ उस पर अपनी प्रतिक्रिया के उपहार मुझे उपहार स्वरूप जरूर वापस करेंगे ताकि मैं आपके लिए कुछ बेहतर लिख सकूँ। ..................................आपकी टिप्पणियों की प्रतीक्षा में ...........................................आपका दोस्त """गंगेश"""
सोमवार, 26 मार्च 2012
सपनों को कभी- कभी मरना भी जरूरी है
चांद और तारों से जगमगाते आसमान की तरफ आंख उठाकर देखा और जमीन पर पड़े अपने पांव को जमीन से ज्यूं ही थोड़ा उपर उठाया ख्यालों ने मेरे मन में आकर उथल-पुथल मचाना शुरू कर दिया। आपलोगों को ये बताना इसलिए जरूरी समझ रहा हूँ क्योंकि मुझे पता है, आपलोगों ने मेरे हर फैसले में अपना मासूम सा मशवरा जोड़कर मेरे फैसले को सही और उचित बनाने में मेरी मदद की है। हां तो बात मेरे ख्यालों की हो रही थी । जमीन और आसमान के मध्य जो कल्पना की धरा मेरे मन में बनी थी मैं वहां घर बनाना चाहता था, सपना था या हकीकत जानने की जरूरत नहीं थी मेरे ख्याल इतने अच्छे थे की जानने की जरूरत ही नहीं महसूस कर रहा था मैं । लेकिन ख्याल तो ख्याल है, उसमें भी आज के भौतिकवादी जमाने का ख्याल, जो ख्यालों की श्रृंखला में विकास के ताने-बाने के बीच मन में पैदा होता है इसलिए, चिंता में भी था कि क्या ऐसा संभव हो सकेगा और अगर ऐसा संभव हो भी गया तो क्या होगा धरती पर ही कम प्रदुषण है जो आसमान में घर बना के मैं इससे बच जाउंगा । बचपन से पढ़ता आ रहा था कि धरती और आसमान के बीच जो परत है वही परत, जो मेरी कल्पना की भूमि थी उसमें तो सैकड़ों छेद हैं, मुझे अपनी कल्पना में भी छेद होता नजर आ रहा था। अब धीरे-धीरे मेरे ख्याल दरकने लगे थे, पर मैं मन को बार-बार समझा रहा था कुछ भी हो ख्यालों से बाहर निकलने की जरूरत नहीं है। ओजोन में प्रदुषण का बढ़ना मुझे ऐसा लग रहा था मानो मेरी कल्पना के संसार में भी गंदगी बढ़ती जा रही है। ऐसे में मैं समझ नहीं पा रहा था कि उस जमीन पर मेरा निवास करना कितना सुरक्षित होगा जब धरती पर हीं लोग इतनी बीमारियों से ग्रसित हैं, तो हे भगवान! वहां तो हमने यहां से ज्यादा प्रदुषण फैला रखा है । वहां तो समाज भी नहीं है, देश भी नहीं है, विश्व नहीं है , हरियाली नहीं है, परिजन नहीं हैं और तो और औरों की कल्पना की तरह ‘तुम’ शब्द नहीं होगा क्योंकि वो शब्द तो अभी तक मेरी कल्पना में मेरे ख्यालों में समाया ही नहीं था खैर ख्याल तो ख्याल हैं, मैं सोच में डूब गया कुछ भी हो वहां हर चीज का निर्माण तो मुझे स्वत: ही करना पड़ेगा ऐसे में मैं नन्हीं सी जान क्या इतना कुछ कर पाऊंगा। लेकिन बात मेरे ख्यालों और सपनों के मर जाने की थी और पहले ही कई महानुभाव, बड़े-बुजुर्ग से कहते सुना था कि चाहे कुछ भी हो अपने सपनों को मरने मत देना।
ऊहापोह की स्थिति बन रही थी मेरे ख्यालों के मध्य लेकिन संघर्ष की कई कहानियां भी पढ़ रखी थी मैंने समय के साथ उसने भी मेरे अंदर दस्तक देना शुरू कर दिया, थोड़ा हौसला बढ़ा मेरा इसलिए संघर्ष करने की सोच ली, फटाफट अपने सपनों और ख्यालों को मूर्तरूप देने की कोशिश में लग गया। अब पहले अपने रहने के लिए एक घर का निर्माण करना था ख्यालों की जमीन पर ख्यालों की ईंट, गारे, मिट्टी, पानी से दिवार खड़ी कर दी, चाहत और खुशी को मिलाकर उसकी छत तैयार कर दी । निर्माण करते-करते इतना थक गया था कि ख्यालों से भरे मन पर पेट की भूख ने दस्तक दे दी । भूख लग गई थी सो खाने की तलाश करने लगा गम और वेदना को खाकर अपनी भूख मिटाई तो प्यास लग आई आंसुओं के सैलाब में से थोड़ी सी आंसु की बुदें पी ली प्यास भी बुझ गई। लेकिन, मैं सोचने लगा इस कल्पनाशील संसार में क्या कुछ हकीकत भी है खुब विचार किया कल्पना के पंख लगे हीं थे सो कल्पना की जमीन और आसमान के बीच मंडराने लगा पहली बार ख्यालों में ही सही परों के सहारे उड़ने का आनंद लेने लगा मैं। काफी देर तक कल्पना के पंख लगाकर खुले अकाश की सैर की और बेखौफ घुमता हुआ काफी दूर निकल आया । लेकिन पूरा का पूरा आसमान खाली केवल मैं और सिर्फ मैं डर लगने लगा था मुझे इस सुनसान संसार में अपने आप से फिर धरती की तरफ झांककर देखा दोस्तों आपकी परछाई दिखी, परिजनों का साथ दिख गया पूरी दुनिया दिख गई । अब हिम्मत नहीं हो रही थी उस उजाड़ दुनिया में जीने की सो कल्पना के संसार से फौरन वापिस लौट आया । मान गया कि सपनों को कभी -कभी मरने देने की जरूरत होती है। शायद उन सपनों को अगर मैं नहीं मारता तो आज आपकी दोस्ती आपका प्यार सब कुछ पीछे छुट गया होता।
ख्यालों से बाहर आया हूं तो अब जागती आंखों से भी सपने नहीं देखना चाहता मान गया हूं जैसी भी है ये जमीं अच्छी है जहां कम से कम आप जैसे लोग आप जैसे दोस्त तो हैं ये समाज तो है, देश तो है, संस्कृति तो है, सभ्यता तो है और वो ‘तुम’ वाले शब्द का सही अर्थ तो है। अब तो ख्याल नहीं ख्वाहिश है की सपनों के संसार को सजाने में जितनी मेहनत मैंने की थी उतनी ही मेहनत हकीकत के इस संसार को सजाने में करूंगा और जानता हूं आपका सहयोग मुझे इसके लिए भी मिलेगा, आपको तो पता है कि आपके सहयोग, विचार और सोच के बिना मेरी कल्पना को पर नहीं लग सकते थे तो फिर मेरी हकीकत का पूरा होना तो मुश्किल है । आप तैयार हो जाइए मेरी सहायता के लिए, आप मेरी सहायता करेंगे ना ?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें