मंगलवार, 9 जुलाई 2013

देश में व्याप्त है राजनीतिक विकलांगता

आम चुनाव नजदीक आ जाए तो देश में राजनीतिक सरगर्मी शुरू हो जाती है। ऐसे में राजनीतिक दलों के बीच शुरू होती है सरकार बनाने के लिए पार्टियों को जोड़ने-तोड़ने और गठबंधन तैयार करने का काम। कुछ साल पहले तक देश में केवल बड़ी पार्टयों का बोलबाला था ऐसे में सत्ता में हस्तक्षेप चाहे पक्ष में रहकर हो या विपक्ष में बैठकर बड़ी राजनीतिक पार्टियां ही ऐसा कर पाती थी। आज देश के राजनीतिक हालात में कुछ बदलाव आया है देश राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है और इसका एक ही कारण है देश में बिछा हुआ छोटी और क्षेत्रीय पार्टयों का जाल। जो अपना हित साधने के लिए सरकार के उपर हमेशा दवाब बनाते हैं और नतीजा देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आता है। देश की राजनीतिक सत्ता के पक्ष और विपक्ष दोनों ही तरफ इन पार्टियों का दखल बराबर का होता है और दोनों के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण यही पार्टियां करती हैं। देश आज महंगाई, भ्रष्टाचार जैसे कई समस्याओं से जूझ रहा है तो इसके जिम्मेवार ये क्षेत्रीय दल ही है। जो सरकार के निर्णय लेने की क्षमता पर अंकुश लगाए बैठे रहते हैं। जिनके हाथ में सत्ता की लगाम होती है। ऐसे में गठबंधन की वैसाखी के सहारे चलने वाले लोकतंत्र से किस तरह की भलाई की उम्मीद की जा सकती है।
देश आज जिस तरह से अस्थिरता की स्थिति में पहुंच गया है विश्व में जेस तरह से उसकी साख गिर रही है। तमाम मुद्दों पर जिस तरह से उसको विश्व के कई देशों का दवाब झेलना पड़ रहा है और वह विरोध करने से कतरा रही है उसका एक ही कारण गठबंधन की राजनीति, सरकार गिराने की हर समय होती कवायद और देश में पनपी सामाजिक अस्थिरता है जो इन क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों की वजह से आई हैं। देश  की राष्ट्रीय राजनीति हो या राज्य की राजनीति एक पार्टी के शासन का युग समाप्त हो गया है और गठबंधन की सरकार का जमाना चल पड़ा है। हर पार्टी का ध्यान चुनाव से पहले और चुनाव के बाद के मोर्चेबंदी पर रहती है। कांग्रेस गठबंधन की राजनीति की पक्षधर नहीं रही है, लेकिन इसे भी हकीकत को स्वीकार करना पड़ा है और आज वह यूपीए नाम के एक गठबंधन का नेतृत्व कर रही है, जिसमें फिलहाल आठ दल शामिल हैं। वे हैं कांग्रेस, एनसीपी, नेशनल कान्फ्रेंस, राष्ट्रीय लोकदल, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस (मणि), सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट और ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक फ्रंट। पिछले पांच साल के गठबंधन के कार्यकाल में कांग्रेस ने आधे दर्जन से ज्यादा सहयोगियों से अपना हाथ भी धोया है।
कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गठबंधन राजनीति के पक्ष में कभी नहीं थे। लेकिन बिहार विधानसभा में अपनी हार की स्थिति को देखते हुए गांधी ने गठबंधन की राजनीति को अपनाने में ही अपना भलाई समझा। पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार और उत्तर प्रदेश में उन्होंने पार्टी को अकेले मैदान में उतारने का फैसला किया था। देश भर में कांग्रेस को मजबूत बनाने के लिए युवाओं को जोड़ने के अभियान में वो लग गए थे, लेकिन इस अभियान से उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। बाद के चुनावों से पता चला कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में पार्टी अपने बूते कुछ नहीं कर सकती। इसलिए अब राहुल भी गठबंधन की राजनीतिक विवशता को स्वीकार कर चुके हैं। कांग्रेस अब यूपीए को और भी विस्तार देने की रणनीति बनाने में जुटी हुई है।
पूर्वी भारत के चुनाव में कांग्रेस चाहती है कि कुछ पूर्व के कुछ राज्य इसके कब्जे में आ जाएं। फिलहाल इस समय देश भर में ऐसे 14 प्रदेश हैं, जहां कांग्रेस अकेली या अपने सहयोगियों के साथ शासन कर रही है। कांग्रेस झारखंड में भी झारखंड मुक्ति मोर्चा की सरकार बना रही है। वह सरकार में उसके साथ तो होगी ही, वहां की 14 लोकसभा सीटों में से अधिकांश पर वह झामुमो के समर्थन से चुनाव लड़ेगी।
बिहार में कांग्रेस जनता दल (यू) के साथ बेहतर संबंध बनाने पर उतारू है। वह राज्य को बेहतर वित्तीय पैकेज देकर लालच में डाल रही है। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नीतीश कुमार को सेकुलर होने का प्रमाण पत्र दे दिया है। विधानसभा में विश्वासमत पाने के दौरान कांग्रेस ने नीतीश सरकार के पक्ष में मतदान किया था। यदि जद (यू) चुनाव पूर्व यूपीए का सहयोगी नहीं भी बना, तो चुनाव बाद सहयोगी के रूप में मोर्चे में उसके आने की संभावना बनी रहेगी। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस पहले तो कांग्रेस के साथ थी। लेकिन कुछ मुद्दों पर सरकार के साथ कहासूनी के बाद दोनों ने गठबंधन समाप्त कर लिया। चुनाव के पहले उसके साथ गठबंधन की इस समय तो कोई संभावना नहीं दिखाई दे रही है, पर चुनाव के बाद वह फिर कांग्रेस के साथ आ सकती है। असम में कांग्रेस और भी मजबूत होकर उभर रही है, क्योंकि वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी असम गण परिषद अपनी समाप्ति के कगार पर है।
उड़ीसा में कांग्रेस का नवीन पटनायक के बीजू जनता दल से सीधा मुकाबला है। पटनायक के बराबरी का कोई नेता आज कांग्रेस के पास नहीं है। फिर भी वहां कांग्रेस ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश कर रही है। कमोबेश यही हालात बीजेपी के भी हैं किसी ने एनडीए गठबंधन का साथ छोड़ा है तो कोई अब भी उसके साथ खड़ा है बिहार में जनता दल (यू) जो गठबंधन की सबसे बड़ी सहयोगी थी उसने एनडीए से गठबंधन समाप्त कर लिया है। चुनाव के बाद क्या स्थिति बनती है यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन देश में राजनीतिक स्थिरता का दौर अब कल की ही बात रहेगी यह निश्चित है क्योंकि राजनीति में जिस तरह का दखल क्षेत्रीय पार्टियों का हो गया है उससे स्पष्ट पता चलता है कि भारत जैसे वृहत लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक स्थिरता अब बस सपना है जिसका हकीकत से अब कोई वास्ता नहीं है। अब देश बैसाखी के सहारे ही चलने को मजबूर हो गया है यानि देश में राजनीतिक विकलांगता का दौर आ गया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें