मंगलवार, 19 नवंबर 2013

दरूआ हटा के रक्खीं, कल मुनियां पी लेले रहे


इस लेख के साथ एक वीडियो क्लिप भी लगाई गई है उस वीडियो को देखने के लिए कृपया आप इस लिंक पर क्लिक करें आशा है आप इसको देखकर लेख लिखने के उद्देश्य को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। 
http://www.boljantabol.com/hindi/wine-f/
https://www.youtube.com/watch?v=7athqzZnSWc

आर के पुरम के कनक दुर्गा कॉलोनी में जब हमारी टीम गई तो वहां हमने जो वीडियोग्राफी की वो कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहा था।
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कभी दिल्ली में शाम के वक्त किसी ठेके के पास से गुजर कर तो देखिए जनाब ऐसा लगेगा मानो किसी सुपरहिट फिल्म के ओपनिंग के दिन के पहले शो के टिकट की खरीद के लिए टिकट खिड़की पर मारामारी हो रही हो। प्रशासन के दो चार लठैत वहां खड़े भीड़ को निहार रहे होते हैं ताकि इस अमृत की खरीद में कोई हंगामा न हो जाए। क्या अमीर क्या गरीब सभी लाईन में घुसक के खड़े होते हैं केवल ब्रांड अलग-अलग कीमत अलग, सामान तो नशे का हीं है यानि शराब।
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“अपनी दरूअन की बोतल जरा छुपा के रखल करीं, कल छोटकी ओकरा पानी समझकर पी लेले रहे। फिर वह टूटी-फूटी हिंदी में शुरू हो गई। पीने के लिए तो कबहु मना नहीं किया है, लेकिन कुत्ते वाली आदत क्यूं नहीं छोड़त हो तुम, रात पीवते के साथ जानवर बन जात हो, सुबह देखो तो केतना सुघड़ मानुस लागत हो। इहे हाल रहा ना त एक दिन बड़कवा भी घरे आने लगेगा पी के फिर जो मार-कुटाई होगी ऊ तुम्हीं देखना। अभी भी कह रहे हैं छोड़ दो इ सब तुम्हरे यही व्वहार के चलते तो ओकरे पांव आजकल घर में नहीं टीक रहे हैं, दिन भर आवारागर्दी करना शुरू कर दिया है ऊ। तुम्हरा क्या है जरा सा जगह देखी नहीं की घुसेड़ के रख दी बोतल फिर नशा हो जाता है तो जेने-तेने मुंह हफियाते फिरते हो। बाल-बचवन सब का तो मानो कौनो फिकरे नहीं है तुमको। अरे ऊ दरूआ बेटा पी लेता तो कौनो बात नहीं थी छुटकी तो औ-औ करके उलटी करने लगी थी। एक तो पानी की बोतल में पता नहीं कहां से देसी दरुआ ले आवत हो और समनवे में रख देवत हो। खुद तो नशे में टल्ली होकर गिरत-पड़त रहत हो और हम अगर कहत हैं तो फिर तो काल ही आ जावत है हम पर कम लात-घुस्सा मारत हो का।“
“अरे बाबूजी कल का रख के गए रहें पानी वाला बोतलवा में आप, हम पी लेली तो लागल की एसिड़ रही गला से उतरे से पहले ही लागल की आगिन लग गईल, खूबे कोशिश करलीं पर उलटी हो गईल, दिनभर सर चकरावत रहल। का रही ऊ बोतलवा में अजबे गंदा महकत रहल ऊ।“
“जा-जाके काम कर, देख के पीए के चाही ना। तोहरा पता नेखे चलल का की ओकरा में का बा। गंधो नेखे बुझाईल। तूं पीले काहे के नासपीटी। प्यास लागी त का कुछो उठा के पी लेबे। कि देख सुन के पीए के चाहीं। दोबारा कभी भी कुछ पीए से पहले देख लेवल करीं बुझले।“
दिल्ली हिन्दुस्तान का दिल जहां अमीर से लेकर गरीब तक ऐसे जीते हैं मानो पैदा होते हीं दौड़ना सीख गए हों। तेज रफ्तार भागती-दौड़ती जिंदगी, वजह सिर्फ और सिर्फ रोटी का जुगाड़ लेकिन इस जुगाड़ के बीच न जाने कहां से लोगों को कच्ची-पक्की, पुरानी-नई, देसी-विदेशी, महंगी-सस्ती शराब को पीने का ख्याल मन में घर कर जाता है और लोग अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को नजरअंदाज कर सेहत के प्रति थोड़ा कम निष्ठावान होकर भी अपनी शराब की ख्वाहिश को पूरा करने में जुट जाते हैं। अमीर एसी की ठंढी हवा में चारदिवारी के अंदर सोफे और कालिन से सजे कमरे की मेज पर शीशे के रंगीन ग्लासों में इसका मजा काजू, किशमिश और कीमती खाद्य पदार्थों के साथ ले रहा होता है तो गरीब इससे अलग मोहल्ले के नुक्कड़ पर लगे चाट-पकौड़ी के ठेले या फिर सुनसान गलियों या घर के खुले छत पर बैठकर रात या दिन के खाने के साथ देसी शराब को अंदर ढकेल रहा होता है। कभी दिल्ली में शाम के वक्त किसी ठेके के पास से गुजर कर तो देखिए जनाब ऐसा लगेगा मानो किसी सुपरहिट फिल्म के ओपनिंग के दिन के पहले शो के टिकट की खरीद के लिए टिकट खिड़की पर मारामारी हो रही हो। प्रशासन के दो चार लठैत वहां खड़े भीड़ को निहार रहे होते हैं ताकि इस अमृत की खरीद में कोई हंगामा न हो जाए। क्या अमीर क्या गरीब सभी लाईन में घुसक के खड़े होते हैं केवल ब्रांड अलग-अलग कीमत अलग, सामान तो नशे का हीं है यानि शराब। ऐसे में दोनों ही तरह के लोगों को फर्क नहीं पड़ता की इसका उनकी सेहत और समाज की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है। उनके बच्चे उनकी इस हरकत से किस तरह के समाज के निर्माण की सीख ले रहे हैं। बस उनको तो अपने नशे और मजे की फिक्र है। नशा नहीं तो मजा नहीं, सेहत और समाजिकता जाए भांड में।
आर के पुरम के कनक दुर्गा कॉलोनी में जब हमारी टीम गई तो वहां हमने जो वीडियोग्राफी की वो कुछ ऐसी ही कहानी बयां कर रहा था। अनगिनत लोग देश में हरदिन केवल शराब पीने की वजह से मर रहे हैं लेकिन फिर भी आज तक सरकार के सारे कानून इसको रोकने में विफल है। शराब केवल निम्नवर्गीय समाज को ही दीमक की तरह नहीं चाट रहा बल्कि मध्यमवर्गीय समाज और उच्चवर्गीय समाज की कोई भी पार्टी इसके बिना अधूरी मानी जाती है। फिर मर्यादा के दायरे में जीनेवाले ये सभ्य समाज के लोग नशे में आकर जिस तरह से अमर्यादित व्यवहार करते हैं उससे सारा देश सारा समाज वाकिफ है। ऐसे में अगर देश की मर्यादा को बचाना है एक संपन्न देश बनाने का सपना साकार करना है देश को एक स्वस्थ छवि प्रदान करनी है और समाज के निर्माण के लिए आगे आनेवाले हमारे भविष्य का कुशल व्यक्तित्व निर्माण करना है तो समाज से इस गंदगी की जड़ों को उखाड़कर कोसों दूर फेंकना होगा ताकि समाज में सड़ांध पैदा करनेवाला यह पौधा पुन: न पनपने पाए।

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